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श्रमण और उसका धर्म
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परन्तु दाहकत्व को तिलांजलि कदापि नहीं दे सकती है। यही वस्तु धर्म है।
श्रमण और उसका धर्म
जैनधर्म के मोक्षमार्ग में श्रमणधर्म का अत्यधिक महत्व है। इस धर्म में मोक्षमार्ग की साधना के रूप में विभाजित श्रावक धर्म और श्रमण धर्म के विभाजन में वस्तुतः यथार्थ साधक तो श्रमण ही है, परन्तु श्रमण धर्म की साधना में तत्पर श्रावक धर्म है। अतः "सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः" में मोक्षमार्ग का अपर नाम तो श्रागण्य ही है। परन्तु श्रमण धर्म को अंगीकार करने की भूमिका के रूप में श्रावक धर्म है। श्रावक धर्म मुख्यतः साक्षात् धर्म नहीं है। इस सन्दर्भ में एक तथ्य और यह है कि, श्रावक की तो उसकी शक्ति की अपेक्षा से ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन है, अर्थात् श्रावक के तो ग्यारह भेद मुख्यतः होते ही हैं, परन्तु श्रमण धर्म में इस प्रकार का कोई भेद नहीं। श्रामण्य की अपेक्षा से त्रिकालवर्ती सभी श्रमण समान हैं।
जैन धर्म में गृहस्थ परम्परा का भी चरम लक्ष्य श्रमण धर्म अंगीकार करना ही था, तभी तो आज भी भारत में मध्यप्रदेश के सागर, जबलपुर, कटनी आदि उत्तर प्रदेश में कानपुर, ललितपुर, आगरा, झाँसी आदि बहुत से नगर इसी प्रकार महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान आदि के बहुत गांवों/शहरों में जैनों के घरों पर तथा मन्दिरों में पिच्छि रखी देखी जा सकती है। परन्तु जैन समाज के बहुत कम लोगों को इस परम्परा के प्रचलन का रहस्य पता हो। घरों में एवं स्थानीय मन्दिरों में पिच्छि रखने का कारण शायद यह था कि, पिच्छि रखने से गृहस्थ को गृहस्थ धर्म का उद्देश्य पिच्छि के प्रयोग की स्मृति दिलाता रहे, तथा उस गहस्थ को इस बात का स्मरण रहे कि जिस पत्नि. बाल-बच्चों. धन कटम्बादिक को आखिर रूप से त्यागना ही है, तो फिर अब इतना अभी मोह क्यों ? इस बात की निरन्तर जागति के लिए घर पर पिच्छि की स्थापना रहती थी। इस प्रसंग में एक तथ्य और भी है कि कमण्डलु रखने की प्रथा नहीं है, क्योंकि पिच्छि बिना तो साधु दस कदम से आगे चल नहीं सकता परन्तु कमण्डलु बिना भी वह चल सकता है एवं पिच्छि तो संयम का साधन है, परन्तु कमण्डलु नहीं, अतः घरों में पिच्छि रखने की प्रथा चली होगी। दूसरा कारण यह भी रहा होगा कि, जब साधु की पिच्छि संयम साधन के अयोग्य हो जाती थी; तो आवक, श्रमण का पिच्छि परिवर्तन में सहयोगी हो जाता था और परिवर्तित पिच्छि को अपने अहोभाग्य के रूप में स्मरण स्वरूप घर पर रख लेता था। परन्तु सद्भावना से चलायी गयी यह परम्परा अब अत्यन्त विकृत रूप धारण कर चुकी है। बल्कि समाज ने इस महान् कार्य को भी अपनी "वणिक बुद्धि" से वंचित नहीं रखा है। अब यह पिच्छिपरिवर्तन समारोहों में "बोलियां" लगाकर होता है। जो कि मानकषाय व व्यवसाय का केन्द्र बन चुका है।