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द्वितीय अध्याय
श्रमण धर्म का स्वरूप
धर्म का स्वरूप
श्रमण धर्म की मीमांसा के पूर्व यह आवश्यक है कि यह निर्धारित हो कि धर्म क्या है ? और उसका स्वरूप कैसा हो ? क्योंकि धर्म के स्वरूप की मीमांसा हुए बिना श्रमण धर्म की मीमांसा ही नहीं की जा सकती है।
संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दुःखों से डरता है। जीव की प्रत्येक वृत्ति सुख प्राप्ति के लिए ही होती है। यहाँ तक कि, जीव के आत्म वध (घात) जैसी वृत्तियाँ भी सुख प्राप्ति की आशा से ही होती है। क्योंकि इस वृत्ति में यह भ्रमपूर्णभाव निहित होता है कि, वर्तमान की शारीरिक अथवा मानसिक पीड़ा से मुक्ति का उपाय स्वयं की समाप्ति में है। अतः दुःख के अभाव रूप सुख की प्राप्ति के लिए ही यह मिथ्यात्व गर्भित कृत्य किया जाता है। इसीलिए आ. समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में धर्म का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है कि
"देशयामि समीचीनं धर्म कर्म निबर्हणम् । संसार दुःखतः सत्तवान योधरत्युत्तमे सुखे।। 2 ।।
रत्नकरण्डश्रावकाचार ग्रन्थ लिखने की प्रतिज्ञा रूप में समन्तभद्र कहते हैं कि, मैं उस कर्मों की निवृत्ति रूप समीचीन धर्म को कहूँगा जो जीवों को संसार दुख से निकालकर उत्तम सुख में स्थापित करे।
उपर्युक्त श्लोक में समन्तभद्र अपना मन्तव्य स्पष्ट करते हैं कि, धर्म तो वही कहा जा सकता है कि, जिसको स्वीकारने पर तत्क्षण उत्तम सुख मिले अर्थात् जिसके पश्चात् किसी अन्य सुख साधन की खोज न करना पड़े, एवं जो स्वाधीन एवं पूर्ण हो वही धर्म कहा जा