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जैन श्रमण : स्वरुप और समीक्षा
समझने के कारण ही उसने यह मत स्थापित किया119
(3) तृतीय निन्हव-आषाढ आचार्य-अव्यक्तवाद__ श्वेताविका नगरी में आषाद नामक एक आचार्य थे। वे अकस्मात् मरकर देव हुए और पुनः मृतशरीर में आकर उपदेश देने लगे। योगा साधना समाप्त होने पर उन्होंने अपने शिष्यों से कहा-"मैंने असंयमी होते हुए भी आप लोगों से आज तक वन्दना करायी। श्रमणो' मुझे माफ करना।" इतना कहकर वे चले गये। तब शिष्य कहने लगे-कौन साधु वन्दनीय है ? कौन नहीं ? निर्णय करना सरल नहीं। अतः किसी की भी वन्दना नहीं करनी चाहिए। व्यवहारनय को नहीं समझने के कारण यह निन्हव पैदा हुआ120
(4) चतुर्थ निन्हव-कौण्डिण्य-समुच्छेदकवाद
कौण्डिण्य का शिष्य अश्वमित्र मिथिलानगरी में अनुप्रवाद नामक पूर्व का अध्ययन कर रहा था। उसमें एक स्थान पर प्रसंग आया कि वर्तमान कालीन नारक विच्छिन्न हो जाएंगे। अतः उसके मन में आया कि उत्पन्न होते ही जब जीव नष्ट हो जाता है तो कर्म का फल कब भोगता है ? यह क्षणभंगवाद पर्यायनय को न समझने के कारण उत्पन्न हुआ। इसे समुच्छेदक नाम दिया गया है। इसका अर्थ है-पदार्थ का जन्म होते ही उसका अत्यन्त विनाश हो जाता है।
(5) पंचम निन्हव-गंग-द्विक्रियावाद
धनगुप्त का शिष्य गंग एक बार शरद ऋतु में ऋतुकातीर नामक नगर से आचार्य की वन्दना करने के लिए निकला। मार्ग में उसने गर्मी और सर्दी दोनों का अनुभव एक साथ किया। तब उसने यह मत प्रतिपादित किया कि एक समय दो क्रियाओं का अनुभव हो सकता है। नदी में चलने पर ऊपर की सूर्य-उष्णता और नदी की शीतलता दोनों का अनुभव होता है। गंग ने इस सिद्धान्त के आधार पर अपने द्विक्रियावाद की स्थापना की। वास्तविकता यह है कि मन की सूक्ष्मता के कारण यह आभास नहीं होता, परन्तु क्रिया का वेदन तो क्रमशः ही होता है।
(6) षष्ठ निन्हव-रोहगुप्त-त्रैराशिक वाद
एक बार अंतरंजिका नगरी में रोहगुप्त अपने गुरु की वन्दना करने जा रहा था। मार्ग में उसे अनेक प्रवादी मिले, जिन्हें उसने पराजित किया। अपने वाद स्थापन काल में उसने जीव और अजीव के साथ ही "नोजीव" की भी स्थापना की। गृहकोकिलादि को उसने "नोजीव" बतलाया। समभिरुढनय को न समझने के कारण उसने इस मत की स्थापना की इसे त्रैराशिकवाद कहा गया है।