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श्वेताम्बरीय मान्यता में दिगम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति
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हरिभद्र के "सम्बोध प्रकरण" से भी श्वे. सम्प्रदाय के इस पूर्व रूप पर प्रकाश पड़ता है। कुछ समय बाद उसी वस्त्र को कमर में धागे से बाँध दिया जाने लगा। यह रूप मथुरा में प्राप्त एक आयाग पट्ट पर उटैंकित रूप से प्राप्त है। इस विकास का समय प्रथम शताब्दी के आस-पास माना जा सकता है। एक अधिपति अथवा महाराज्ञी की आज्ञा से ही एक संघ विशेष में इतना परिवर्तन हो गया हो, यह बात तर्क संगत नहीं लगती है। वस्तुतः उसी पृष्ठभूमि में मूलरूप से शिथिलाचार की बढ़ती हुयी प्रवृत्ति रही होगी।।। जिनकल्प को मूल रूप मानने और स्थविरकल्प को उत्तर काल में उत्पन्न स्थिति के साथ बढ़ते हुए समझौतों को शामिल करने से भी यह बात पुष्ट होती है।
श्वेताम्बरीय मान्यता में दिगम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति
जैन शासन भेद को श्वेताम्बर परम्परा में "निन्हव" कहा गया है। उनकी संख्या सात कही गयी है-(1) जामालि, तिष्यगुप्त, आषाढ, विश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त, और गौष्ठामाहिल। निन्हव का अर्थ है-किसी विशिष्ट दृष्टिकोण से आगमिक परम्परा से विपरीत अर्थ प्रस्तुत करने वाला118। प्रत्येक निन्हव जैनागमिक परम्परा के किसी एक पक्ष को अस्वीकार करता है और शेष पक्षों को स्वीकार करता है। ऐसा होने की वजह से ही वह जैन धर्म के ही अन्तर्गत अपना एक पृथक मत स्थापित करता है।
संक्षिप्ततः निन्हवों का स्वरूप निम्नलिखित है:
प्रथम निन्हव-जामालि-बहुरत सिद्धान्त
जामालि भगवान महावीर का शिष्य था। श्रावस्ती में उसने एक बार अपने शिष्य से बिस्तर बिछाने के लिए कहा। शिष्य ने कहा बिस्तर बिछ गये। जामालि ने जाकर जब देखा कि अभी बिस्तर लग रहे हैं तो उसे महावीर का कहा "कियणाणं कयं" ( किया जाने वाला कर दिया गया) वचन असत्य प्रतीत हुआ। तब उसने उस सिद्धान्त के स्थान पर "बहुरत" सिद्धान्त की स्थापना की, जिसका अर्थ है कि कोई भी क्रिया एक समय में न होकर अनेक समय में होती है। मृदानयन आदि से घट का प्रारम्भ होता है, पर घट तो अन्त में ही दिखायी देता है। यह ऋजुसूत्रनय का विषय है जिसे जामालि नहीं समझ सका।
(2) द्वितीय निन्हव-तिष्य गुप्त-जीव प्रादेशिक सिद्धान्त
तिष्यगुप्त वसु का शिष्य था। एक समय ऋषभपुर में आत्मप्रवाद पर चर्चा चल रही थी। प्रश्न था-क्या जीव के एक प्रदेश को जीव कह सकते हैं। भगवान महावीर ने उत्तर दिया-नहीं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सम्पूर्ण प्रदेश युक्त होने पर ही जीव कहा जाएगा। तब तिष्यगुप्त ने कहा कि जिस प्रदेश के कारण वह जीव नहीं कहलाएगा। उसी चरम प्रदेश को जीव क्यों नहीं कहा जाता ? यही उसका जीव प्रादेशिक मत है। एवंभूत नय न