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दिगम्बर सम्प्रदाय और उसके भेद
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सेन संघ
संभवतः सेन-संघ का नाम सेनान्त आचार्यों से हुआ है। इसका सर्वप्रथम उल्लेख सूरत ताम्रपत्र में मिलता है।133 जो शक सं. 743 का है। उत्तर-पुराण के कर्ता गुणभद्र ने अपने गुरु जिनसेन और दादा गुरु वीरसेन स्वामी को सेनान्वय कहा है। परन्तु जिनसन और वीरसेन ने धवला प्रशस्ति में अपने को पंचस्तूपान्वय कहा है। इन्द्रनन्दि के लेखानुसार पंचस्तूप से आए हुए मुनियों के संघ को "सेन" नाम दिया गया था। अतः पंचस्तूपान्वय ही संभवतः उत्तरकाल में सेनान्वय के नाम से प्रसिद्ध हुआ क्योंकि वीरसेन के पश्चात् किसी भी आचार्य ने अपने ग्रन्थ में पंचस्तूपान्वय का उल्लेख नहीं किया है।
उपर्युक्त कहे गये सिंह, नन्दि, सेन और देव ये चार अर्हदवलि द्वारा स्थापित हुए थे। अतः "मूलसंघ" के अन्तर्गत रहे। इन्हें किसी ने भी जैनाभास नहीं कहा। अतः ये मूलसंघ के नाम से कहे गये। इसके अलावा अन्य संघों का परिचय निम्न है।
काष्ठा संघ एवं माथुर संघ
काष्ठा संघ का सर्वप्रथम शिलालेखीय उल्लेख श्रवणबेलगोला के वि.सं. 1119 के लेख में मिलता है। परन्तु चौदहवीं शताब्दी के पश्चात् इस संघ की अनेक परम्पराओं के उल्लेख मिलते हैं। भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति ने जिनका समय संवत् 1747 है, अपनी पट्टावली में कहा है कि काष्ठा संघ में नन्दितट, माथुर, वागड एवं लाटवागड ये चार गच्छ प्रसिद्ध हुए। किन्तु माथुर, वागड, तथा लाटवागड के बारहवीं सदी तक के जो उल्लेख मिलते हैं उनमें उन्हें संघ की संज्ञा दी गयी है। काष्ठा संघ के साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं है।
दर्शनसार! में काष्ठा संघ की उत्पत्ति दक्षिण प्रान्त में आचार्य जिनसेन के सतीर्थ्य विनयसेन के शिष्य कुमारसेन के द्वारा जो नन्दितट में रहते थे, वि.सं. 753 में हुयी बतलायी है, और कहा है कि उन्होंने कर्कश केश अर्थात् गौ की पूंछ की पिच्छि ग्रहण कर सारे बागड देश में उन्मार्ग चलाया। फिर इसके दो सौ वर्ष बाद अर्थात् वि.सं. 953 के लगभग मथुरा में माथुरों के गुरु रामसेन ने निःपिच्छिक रहने का उपदेश दिया और कहा कि न मयूर पिच्छि रखने की आवश्यकता है और न गौ पुंच्छ की पिच्छि।134
किन्तु पं. बुलाकीदास के वचन कोष में, जो वि.सं.1737 में बना है, लिखा है कि काष्ठा संघ की उत्पत्ति उमास्वामी के पट्टाधिकारी लोहाचार्य द्वारा अगरोहा नगर में हुयी और काष्ठ की प्रतिमा के पूजन का विधान करने से उसका नाम काष्ठासंघ पड़ा।135
स्थान सापेक्षिकता के कारण संघों, गणों एवं गच्छों के नाम को लेकर बाबू कामता