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दिगम्बर सम्प्रदाय और उसके भेद
विशेषों की उत्पत्ति हुयी होगी। वस्तुतः खतरा तो विशुद्धता को ही होता है। अविशुद्धता को खतरे की आवश्यकता नहीं होती है। परन्तु कालान्तर में उनके भी संगठन बन जाया करते हैं। यही स्थिति महावीर के संघ/परम्परा के साथ निर्वाह करने वाले श्रमणों की हुयी होगी, तभी तो "मूलसंघ" जैसे नामों के नामकरण की आवश्यकता हुयी होगी। और ऐसे मूलसंघ के लोगों ने अपने से अलग संघ के श्रमणों को जैनाभास इसी कारण कहा होगा कि वे चरित्र में शिथिल रहे होंगे। परन्तु इस तथ्य को भी नहीं भुलाया जा सकता कि एक सद्भावना से संगठित किया गया विशुद्धतावादी श्रमणों के संघ में काफी शिथिलताएं आयीं। विशुद्धता के प्रतीक रूप में स्थापित मूलसंघ भी कालान्तर में एक रूढ़ि बन गयी, और इस संघ के सदस्य भी कुन्दकुन्द और समन्तभद्र की दुहाई देकर उनके यश का उपयोग कर, दान दक्षिणा यन्त्रमन्त्र एवं लोकेषणा के चक्रव्यूह में भी समय-समय पर फंसे,129 तो दूसरी तरफ जैनाभास कहे जाने वाले काष्ठा, द्राविड़ एवं यापनीय संघ में एक रूढ़ि के रूप में ही शिथिलाचार रहा, और वहाँ भी कर्दम में कमल खिले। और इनका विवेचन सन्दर्भित प्रकरणों में होगा।
यहाँ पर तो अभी इंतना ही कहा जा सकता है कि मूल संघ की उत्पत्ति के सन्दर्भ में अन्तिम रूप से सशक्त ऐतिहासिकता अप्राप्त है। "मूलसंघ" और "कौण्डकुन्दान्वय" शब्दों के उपयोग तो काष्ठासंघ और द्राविड संघ के आचार्यों ने भी स्थान-स्थान पर अपने लिए गौरव के साथ किया। कुछ विद्वान मूल संघ और कौण्डकुन्दान्वय को पर्यायवाची ही मानते हैं अर्थात् कुन्दकुन्द को मूलसंघ का प्रवर्तक मानते हैं। परन्तु "मूलसंघ कोण्डकुन्दान्वय" का एक साथ सर्वप्रथम प्रयोग सन् 1044 ई. में हुआ है130 कौण्डकुन्दान्वय का स्वतंत्र प्रयोग 8-9 शताब्दी के लगभग हुआ है।131 अतः यदि मूलसंघ के प्रवर्तक कुन्दकुन्द होते तो इसके पूर्व अथवा इसमें भी इसके साथ कुन्दकुन्द का नाम भी अवश्य आता। परन्तु मूलसंघ को धरसेनाचार्य आदि के साथ न जोडकर कुन्दकुन्द के साथ ही जोडने का क्या कारण दिगम्बर परम्परा में रहा ? सम्भवतः कुन्दकुन्द द्वारा सीमन्धर भगवान की साक्षात् वाणी सुनने की किवंदन्ती प्रचलित होने के कारण तथा उनकी अजोड़ साहित्यिक एवं आध्यात्मिकता, अभिव्यक्ति की अनुपम प्रतिभा और एक युगपुरुष होने के कारण तथा महावीर की मूल परम्परा में भेद पड़ने पर उनके मूल स्वरूप को सजग व सशक्त, एवं सरल तरीके से सुरक्षित रखने के कारण "मूलसंघ" नाम प्रवर्तित हुआ और इस "मूलसंघ" शब्द को कालान्तर में उनके साथ जोड़ा जाने लगा। आज तक के 2000 वर्ष के जैन इतिहास में हजारों जैनेतर उनसे ही प्रभावित होकर जैन बने हैं। ऐसा किन्हीं अन्य जैन आचार्यों के साथ नियोग नहीं है। कुन्दकुन्द सचमुच में ही कालजयी पुरुष हैं।
मूलसंघ का सर्वप्रथम उल्लेख नोणमंगल के दानपत्र में मिलता है132 जो सम्भवतः सन् 425 ई. का है। मूलसंघ के अन्तर्गत विभिन्न गण, गच्छ, अन्वय, आदि की विभिन्न शाखाएं-प्रशाखाएं हैं जिनका विभाजन इस प्रकार से किया जा सकता है।