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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
1. मूलसंघ के गण, गच्छ, एवं अन्वयआचार्य इन्द्रनन्दि के श्रृतावतार में एक श्लोक लिखा है
"आयतौ नन्दिवीरौ प्रकटगिरि गुहावासतोऽशोकवाटा,
देवाश्चान्यो परादिर्जित इति यतिमौ सेन-भद्रायौ च। पंचस्तूप्यात्सगुप्तौ गुणधर वृषभः शाल्मलीवृक्षमूलात्, निर्यातौ सिंह चन्द्रौ प्रथितगुणगणौ केसरात्खण्ड पूर्वात् ।। 96 ।।
इस श्लोक का अर्थ एक घटना से जोडते हुए कहा है कि पुण्ड्रवर्धन नगर में अर्हवली नाम के आचार्य थे। प्रत्येक पाँच वर्ष के अन्त में वे सौ योजन में बसने वाले मुनियों को युग प्रतिक्रमण के लिए बुलाते थे। एक बार ऐसे ही युग प्रतिक्रमण के अवसर पर समागत श्रमणों से उन्होंने पूछा-क्या सब आ गये ? हाँ, हम सब अपने संघ के साथ आ गये, श्रमणों ने उत्तर दिया। इस उत्तर को सुनकर उन्हें लगा कि जैन धर्म गणपक्षपात के साथ ही रह सकेगा। अतः उन्होंने संघों की रचना की। जो मुनि गुफा से आये थे, उनमें से कुछ को "अपराजित" नाम दिया, कुछ को देव नाम127 । जो पंचस्तूप्य निवास से आये थे, उनमें से कुछ को "सेन" नाम दिया, कुछ को "भद्र" नाम। जो शाल्मली वृक्ष के मूल से आये थे, उनमें से किसी को "गुणधर" नाम दिया, कुछ को "गुप्त" । जो खण्ड केसर वृक्ष के मूल से आये थे उनमें से किसी को "सिंह" नाम दिया किन्हीं को "चन्द्र"।
11 वीं शताब्दी के इन इन्द्रनन्दि के मन्तव्य के पश्चात् सम्भवतः इन्हीं के अनुसरण पर 14 वीं शताब्दी में भी इस प्रकार के शिलालेख प्राप्त हैं। इसके अतिरिक्त एक मन्तव्य यह भी मिलता है कि अकलंक देव के स्वर्गवास के पश्चात् संघ, देश-भेद से उक्त चार भेदों में विभाजित हो गया। परन्तु इनमें कोई चारित्रिक भेद नहीं है। इन संघ भेदों के कारणों को देखकर लगता है कि उस समय वृहत्तर भारत विभिन्न घटकों में बँटा हुआ था। अपनी एक अलग पहिचान बनाने की आवश्यकता थी। ऐसे समय में श्रमण संघ भी अछूता न रहा। श्रमणों का किसी राज्य विशेष में प्रतिबन्ध तो होता नहीं है, ऐसे में जब श्रमण किसी दूसरे राज्य या शहर में प्रवेश करता होगा, तो वह कभी-कभी अपने निवास स्थान आदि से भी जाना जाता होगा। परिणाम स्वरूप, अन्वय, संघ, या गच्छ गौण हो जाते थे तथा निवास स्थान मुख्य हो जाता था। उदाहरणार्थ एक शिलालेख देखें-"कोण्डकुन्दान्वय में पनसोगे निवासी मुनियों में प्रधान पूर्णचन्द्र मुनि थे। 28" शायद एक शहर या जाति से कई मुनि दीक्षा लेते थे, अतः उस निवास स्थान से वे पहिचाने जाते होंगे। जैसा कि उपर्युक्त "पनसोगेनिवासी मुनियों में प्रधान" से ध्वनित होता है।
उस समय शिथिलाचार के बीज पडे हुए ही थे, वे पल्लवित और पुष्पित भी हो रहे थे, ऐसे में विशुद्धतावादी श्रमणों की समुचित पहिचान नहीं हो पाती होगी। अतः अपनी विशुद्धता की पहिचान हेतु अपना एक चिन्ह बनाना उचित समझा। इसलिए ऐसे में संघ