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दिगम्बर सम्प्रदाय और उसके भेद
दिगम्बरों की नग्न वीतरागता के समर्थन में वैदिक साहित्य, मुस्लिम साहित्य विभिन्न ऐतिहासिक अभिलेख एवं भारतीय संदर्भ इस बात की पुरजोर रूप से पुष्टि करते हैं। इसके अतिरिक्त निष्पक्ष विदेशी विद्वान भी इसकी पुष्टि में अपना मत व्यक्त करते हैं । अतः दिगम्बर श्रमण की प्राचीनता सिद्ध हुए बिना रहती नहीं है। आचार्य भद्रबाहु प्रथम के पश्चात् उज्जैन के अकाल में शिथिलाचार के समर्थन में उठी एक विशेष आवाज ह श्वेताम्बर श्रमण हैं, तभी तो उनके आगमों में चारित्रिक पक्ष में विभिन्न अपवाद मार्ग विकसित किये गये । जिनकल्प के उच्छेद की बात कहकर स्थविर कल्प में वस्त्र की मान्यता प्रदान कर परस्पर विरुद्ध कथन रहे, एवं निरन्तर शिथिलाचार का विकास ही रहा। जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय में चारित्रिक पक्ष सदैव लगभग एक सा ही रहा । उसमें कोई विशेष उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ । अतः महावीर की धार्मिक परम्परा में दिगम्बर सम्प्रदाय ही आता है, श्वेताम्बर सम्प्रदाय नहीं । यह तो लगभग 4-5 शताब्दी की ही एक नवीनतम कृति है, जिसने अपने मत की पुष्टि एवं नया मत प्रवर्तन किया ।
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दिगम्बर सम्प्रदाय और उसके भेद
वीर निर्वाण के 683 वर्ष तक लोहाचार्य की परम्परा में गण, कुल, संघ का विभाजन नहीं हुआ था, परन्तु आचार्य अर्हद्बली से नवीन संघ और गणों की उत्पत्ति हुयी । दिगम्बर सम्प्रदाय में भी आन्तरिक शिथिलाचार के बढते कदम को रोकने के लिए एवं अपना एक संगठन कायम करने के लिए, जिससे शिथिलाचार को प्रोत्साहन न मिल सके; विभिन्न आचार्यों ने विभिन्न संघ स्थापित किये थे । वस्तुतः यह नहीं कहा जा सकता कि किसी विशुद्धतावादी संघ में कालान्तर में भी शिथिलाचार न आया हो, प्रभावी आचार्य के अभाव में इन संघों में भी शिथिलाचार आया था। क्योंकि दक्षिण भारत के अनेक शिलालेखों में कुन्दकुन्दाम्नाय के श्रमणों को भी मन्दिर बनवाना, दानलेना कृषक कर्म में लिप्त वहाँ के शिलालेख प्रदर्शित करते हैं । वस्तुतः "चोरन के पुर न बसै" की स्थिति है। शिथिलाचारियों का अपना कोई सम्प्रदाय नहीं कहा जा सकता है वे हर जगह पाये जा सकते हैं, इसी प्रकार से विशुद्धतावादी लोगों का भी अपना कोई संघ अन्तिम रूप से नहीं कहा जा सकता है। यदि कुन्दकुन्द की आम्नाय में भी शिथिल श्रमण मिलते हैं तो दूसरी तरफ काष्ठा संघ, द्राविड संघ एवं यापनीय संघ में यत्र-तत्र श्रेष्ठ आचार्यों का दर्शन होता है। लेकिन फिर भी उपर्युक्त संघ मुख्यतः किसी विशिष्ट मान्यता से सार्वजनिक रूप से प्रसिद्ध रहे हैं। हमारा किसी संघ के आधार पर किसी व्यक्ति विशेष ( श्रमण ) के गुण-दोषों का निर्धारण करना एक बहुत बड़ी भूल भरा अपराध होगा। किसी संघ के गुण-दोषों की प्रसिद्धि तो उसके संस्थापक के आधार पर ही हुयी थी तथा, उस संघ में उन-उन गुणवान/दोषवान श्रमणों का बाहुल्य भी माना जा सकता है । परन्तु किसी प्रबुद्ध को तो श्रमण के व्यक्तित्व का नाम उसके संघ के आग्रह के साथ नहीं करना चाहिए । यहाँ पर विभिन्न संघों का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं।
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