________________
श्वेताम्बरीय मान्यता में दिगम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति
(7) सप्तम निन्हव-गोष्ठामाहिल अबद्धवाद
एक बार दशपुर नगर में गोष्ठामाहिल कर्मप्रवाद पढ़ रहा था । उसमें उसने पढ़ा कि कर्म केवल जीव का स्पर्श करके अलग हो जाता है। इस पर उसने सिद्धान्त बनाया कि जीव और कर्म अबद्ध रहते हैं। उनका बन्ध ही नहीं होता । व्यवहारनय को न समझने के कारण ही गोष्ठामाहिल ने यह मत स्थापित किया ।
-
71
( 8 ) अष्ट्म निन्हव - बोटिक - दिगम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति - शिवभूति
रथवीरपुर नामक नगर में शिवभूति नामक साधु रहता था । वहाँ के राजा ने एक बार बहुमूल्य रत्न - कंबल भेंट किया। शिवभूति के गुरु आर्यकृष्ण ने कहा कि साधु के मार्ग में अनेक अनर्थ उत्पन्न करने वाले इस कम्बल को ग्रहण करना उचित नहीं । शिवभूति को उस कम्बल में आसक्ति उत्पन्न हो गयी । आर्यकृष्ण ने यह समझकर शिवभूति की अनुपस्थिति में उस कम्बल के पादप्रोच्छनक बना दिये। यह घटना देखकर शिवभूति क्रोधित हो गया । एक समय आर्यकृष्ण जिनकल्पियों का वर्णन कर रहे थे, और कह रहे थे कि उपयुक्त संहनन आदि के अभाव में उसका पालन सम्भव नहीं । शिवभूति ने कहा "मेरे रहते हुए यह अशक्य कैसे हो सकता है ?" यह कहकर अभिनिवेशवश निर्वस्त्र होकर यह मत स्थापित किया, कि वस्त्र कषाय का कारण होने से परिग्रहरूप है अतः त्याज्य है ।
ये निन्हव किसी अभिनिवेश के कारण आगमिक परम्परा से विपरीत अर्थ प्रस्तुत करने वाले होते हैं। प्रथम निन्हव महावीर के जीवन काल में ही उनकी ज्ञानोत्पत्ति के चौदह वर्ष बाद हुआ। इसके दो वर्ष बाद ही द्वितीय निन्हव हुआ । शेष निन्हव महावीर के निर्वाण होने पर क्रमशः 214, 220, 218, 544, 584, 609, वर्ष बाद उत्पन्न हुए । सिद्धान्तभेद से प्रथम सात निन्हवों का उल्लेख श्वे. परम्परा में ही मिलता है । पर जिनभद्र ने "विशेषावश्यक भाष्य" में एक और निन्हव को जोडकर उनकी संख्या 8 कर दी। इसी अष्टम निन्हव को "दिगम्बर" कहा गया है । आश्चर्य की बात है, शेष निन्हवों के कारण किसी सम्प्रदाय विशेष की उत्पत्ति नहीं हुयी । "ठाणांगसूत्र " ( सूत्र 580 ) में केवल सात निन्हवों का उल्लेख है पर "आवश्यकनिर्युक्ति" (गाथा - 779-783) में स्थान काल का उल्लेख करते समय आठ निन्हवों का और उपसंहार करते समय मात्र सात निन्हवों का निर्देश किया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ही सर्वप्रथम अष्टम नन्हव के रूप में दिगम्बर मत के उत्पत्ति की कल्पना की है। उन्होंने यह भी कहा है कि उपयुक्त संहननादि का अभाव होने से जिनकल्प का धारण करना अब शक्य है 121
दिगम्बर मत की उत्पत्ति के सन्दर्भ में उपर्युक्त निन्हववाद एवं इसी प्रकार के कथानक श्वे. श्रमण आत्मानन्द जी के तत्व निर्णयप्रसाद ग्रन्थ के पृष्ठ 542-544 के आधार पर समीक्षा करें तो यह मानना पडता है कि दिगम्बर मत उत्पत्ति के ये आधार अयुक्त एवं अविचारितरम्य ही हैं। क्योंकि दिगम्बरत्व प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के समय से ही विद्यमान