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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
सम्यक्त्वसंपन्नाः शुद्धमानसाः परमहंसाचरणेन सन्यासेन देहत्यागं कुर्वन्ति ते परमहंसा नामेत्युपनिषद् 50
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याज्ञवल्क्योपनिषद में तो नग्न साधु का उल्लेख देते हुए उसे परमेश्वर का रूप दिया गया है, जो कि जैनों की मान्यता से साम्य रखता है।
"यथाजातरूपधरा निर्द्वन्दा निष्परिग्रहास्तत्वब्रह्ममार्गे सम्यक् सम्पन्नाः शुद्ध मानसाः प्राणसंधारणार्थं यथोक्तकाले विमुक्तो भैक्षमाचरन्तुदरपात्रेण लाभालाभौ समोभूत्वा करपात्रेण: वा कमण्डलुदकयो भैक्षमाचरन्नुदरमात्र संग्रहः ।...... आशाम्बरो न नमस्कारो न दारपुत्राभिलाषी लक्ष्यालक्ष्य निर्वर्तकः परिव्राट् परमेश्वरो भवति 51 ।
मात्र उपनिषदों में ही नग्नत्व का विधान नहीं है अपितु वेदों में भी साधु की नग्नता का सामान्यतः उल्लेख प्राप्त होता है।
देखें यजुर्वेद अ. 13 म. 14 में
"आतिथ्यरूपं मासरम् महावीरस्य नग्नहुः । रूपमुपसदामेतस्त्रित्रो रात्रीः सुरासुता ।।
अर्थात अतिथि के भाव महीनों तक रहने वाले पराक्रमशील नग्नता की उपासना करो जिससे ये तीनों मिथ्याज्ञान- दर्शन- चरित्र रूपी मद्य नष्ट होती है ।
सम्भवतः इस मंत्र द्वारा वेदकार ने जैन तीर्थंकर ऋषभदेव के आदर्श को ग्रहण किया है। दूसरे धर्मों के आदर्श को इस तरह ग्रहण करने के उल्लेख मिलते हैं। 52
इसके अतिरिक्त अथर्ववेद के पन्द्रहवें अध्याय में जिन व्रात्य और महाव्रात्य का उल्लेख है उनमें महाव्रात्य दिगम्बर साधु का अनुरूप है। किन्तु यह व्रात्य का एक वाह्य संप्रदाय था, जो बहुत कुछ निर्ग्रन्थ संप्रदाय से मिलता जुलता था। बल्कि कहना चाहिए कि वह जैन मुनि और तीर्थंकर ही का द्योतक है। 53
इस अवस्था में यह मान्यता और भी पुष्ट हो जाती है कि जैन तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा दिगम्बरत्व का प्रतिपादन सर्वप्रथम हुआ था और जब उसका प्राबल्य बढ़ गया और लोग समझने लगे कि सर्वोच्च पद पाने के लिए दिगम्बरत्व आवश्यक है तो उन्होंने अपने शास्त्रों में भी स्थान दिया। यही कारण है कि वेदों में भी इसका उल्लेख सामान्यतः मिल जाता 54