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संघ और सम्प्रदाय
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व्यवस्था पर किंचित् सन्तुष्टि कर लेते हैं। परन्तु इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध श्वेताम्बरीय विद्वान श्री मोहनलाल जी मेहता, भू.पू. निदेशक पार्श्वनाथ विद्याश्रम, बनारस का यह मन्तव्य एक नये सूत्र की ओर ही इंगित करता है। वे कहते हैं कि "कुछ समय बाद (13 मास बाद) उन्होनें उस वस्त्र (देवदूष्य) का भी त्याग कर दिया था एवं सर्वथा अचेल होकर भ्रमण करने लगे। तब फिर दीक्षा के समय महावीर ने अपने पास जो वस्त्र रखा वह किसलिए? वह वस्त्र संभवतः प्रव्रज्या की तद्देशीय प्रणाली के अनुसार वे अपने कंधे पर रखे रहे अथवा उससे पौंछने आदि का काम लेते रहे। चाहे कुछ भी हुआ हो, इतना निश्चित है कि महावीर प्रव्रज्या लेने के साथ ही अचेल अर्थात् नग्न हो गये तथा मृत्युपर्यन्त नग्न ही रहे एवं किसी भी रूप में अपने शरीर के लिए वस्त्र का उपयोग नहीं किया।108
भगवान महावीर के सन्दर्भ में तो इस बात के लिए श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्वीकृत करते ही हैं कि वे नग्न रहे थे, परन्तु पार्श्वनाथे और उनके शिष्यों के सन्दर्भ में वे कहते हैं कि उन्होंने नग्नता का उपदेश नहीं दिया था, अपितु सचेलक श्रमण स्वरूप का उपदेश दिया था। परन्तु वस्तुतः यह एक भ्रमपूर्ण त्रुटि है। प्रथमतः हमें उन शब्दों पर विशेष ध्यान देना होगा कि पार्श्वनाथ के शिष्यों ने महावीर से सवस्त्र मुक्ति बावत चर्चा की, इस सन्दर्भ में यह हुआ होगा कि -पार्श्वनाथ ने तो श्रमण की अचेलक व्यवस्था का ही उपदेश दिया था परन्तु महावीर के काल तक आते-आते 250 वर्षों की अवधि में उनके समय तक पर्याप्त शिथिलता आ गयी हो, जिससे उस समय तक लोग ही सचेलक व्यवस्था को श्रमण का स्वरूप मानने लगे हों और यह प्रचारित होने लगा हो कि पार्श्वनाथ के शिष्यों ने ऐसा ही उपदेश दिया था। श्वे. सम्प्रदाय ने सचेलक स्वरूप की पुष्टि में पार्श्वनाथ के शिष्यों का महावीर के साथ संवाद प्रस्तुत कर अपने पक्ष की पुष्टि कराने का एक तरीका अपनाया, जो कि उनके पक्ष को सशक्त नहीं बना सका है। क्योंकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अलावा जैनेतर साहित्य को पार्श्वनाथ के सन्दर्भ में बोलता देखते हैं, तो मुझे अपने तथ्य की पुष्टि नज़र आती है। भगवान महावीर के समदेश, समकाल के प्रतीक रूप में कपिलवस्तु के राजा सिद्धार्थ के पुत्र गौतम बुद्ध हुए हैं। जिनको कि ऐतिहासिक मान्यता प्राप्त है। इन्होंने अपना राज परिवार त्याग कर सबसे प्रथम भगवान पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा के जैन साधु पिहितासव से ही नग्न साधुदीक्षा ली थी, तब वे नग्न रहते थे, हाथों से भोजन करते थे तथा अपने बालों का स्वयं लोच करते थे। यह तथ्य मज्झिमनिकाय महासीहनादसुत्र 12 में स्वयं महात्मा बुद्ध ने कही है।
"अचेलको होमि हत्थापलेखनो होमि नाभिहंतं च उदिदस्संकतन निमंत्रणं सादियामि सो न कुम्भीमुखा परिगसहामि न कलोपि मुखा परिगहामि न एलकमतरं न दंडमंतरं न मुसलमन्तरं न दिन्नं भुजमानानं -- केसमस्सुलोचको विहोमि, केसमस्यु लोचनानुयोगं अनुयुतोयाव उदबिन्दुम्हिपिमे दया पच्च पट्ठिता होति।