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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
"जैनशास्त्र के अनुसार पालक का काल 60 वर्ष और नन्दवंश का 155 वर्ष है। तदनन्तर अर्थात् वी.नि. 215 में चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्याभिषेक हुआ। श्रुत केवली भद्रबाहु (वी.नि. 162) के समकालीन बनाने के अर्थ श्वे. आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि ने इसे वी.नि. 155 में राज्यारुढ़ होने की कल्पना की। जिसके लिए उन्हें नंदवंश के काल को 155 से घटाकर 95 वर्ष करना पड़ा। इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य के काल को लेकर 60 वर्ष का मतभेद पाया जाता है। दूसरी ओर पुराणों में नंदवंशीय महापदानन्दिके काल को लेकर 60 वर्ष का मतभेद है। वायुपुराण में उसका काल 28 वर्ष है और अन्य पुराणों में 88 वर्ष । तथा 88 वर्ष मानने पर नंदवंश का काल 183 वर्ष आता है और 28 वर्ष मानने पर 123 वर्ष। इस काल में उदयी (अजक) के अवन्ती राज्यवाले 32 वर्ष मिलाने पर पालक के पश्चात् नंद वंश का काल 155 वर्ष आ जाता है। इसलिए उदयी तथा उसके उत्तराधिकारी नन्दिवर्द्धन की गणना नन्द वंश में करने की भ्रान्ति चल पड़ी है। वास्तव में ये दोनों राजा श्रेणिक वंश में है, नन्द वंश में नहीं। नन्द वंश में नव नन्द प्रसिद्ध हैं जिनका काल महापदा नन्द से प्रारम्भ होता है। 11
महावीर के निर्वाण के पश्चात्, श्रुतकेवलियों की परम्परा में भद्रबाहु एक ऐसे आचार्य हुए कि जिनके व्यक्तित्व को दोनों परम्पराओं ने एक मत से स्वीकार किया है। परम्पराओं के अनुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु निमित्त ज्ञानी थे। उनके ही समय संघ भेद प्रारम्भ हुआ था। अपने निमित्त ज्ञान के आधार पर उन्होंने उत्तर भारत में होने वाला द्वादश वर्षीय दुष्काल का आगमन जानकर भद्रबाहु ने बारह हजार मुनि संघ के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। इनके साथ चन्द्रगुप्त मौर्य भी थे।यह दीक्षा प्राप्त करने वाले अन्तिम राजा था। जब भद्रबाहु ने अपना शरीर त्याग का काल जाना तो उन्होंने संघ को चोल, पाण्ड्य प्रदेशों की ओर जाने का आदेश दिया और स्वयं श्रवणवेलगोल में ही कटवप्र नामक पहाड़ी पर समाधिमरण पूर्वक शरीर त्याग किया। इस प्रसंग का एक छठी शती का लेख पुन्नाड के उत्तरी भाग में स्थित चन्द्रगिरि नामक पहाड़ी पर प्राप्त है और उसके सामने विन्ध्यागिरि पर चामुण्डराय द्वारा स्थापित गोम्मटेश्वर बाहुवलि की 57 फीट ऊँची एक भव्य प्रतिमा प्रतिष्ठित है।
श्वे. परम्परा के आचार्य हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्वन् के अनुसार भद्रबाहु दुष्काल समाप्त होने के पश्चात् दक्षिण से मगध वापिस हुए और पश्चात् महाप्रयाणकरने नेपाल चले गये। परन्तु इस तथ्य का कोई प्रामाण्य नहीं है, क्योंकि "यह कथन कि 'महाप्रयाण करने नेपाल गये" की अपेक्षा यह कथन कि "कटवप्र" पहाडी पर महाप्रयाण हो चुका" काफी प्रामाणिक है और इस कथन से सम्बन्धित पर्याप्त शिलालेख कर्नाटक देश में प्राप्त है, तथा भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त की समकालीनता पूर्वक गुरु-शिष्य सम्बन्ध के भी काफी प्रमाण हैं जो निम्नतः हैं।