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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
अपना अल्प जीवन जानकार समाधि सहित शरीर त्याग करने के लिए समस्त संघ को विदा करके एक शिष्य के साथ भद्रबाहु स्वामी ने विस्तीर्ण शिलाओं पर समाधि मरण किया, तथा संघ के 700 ऋषियों ने भी समय-समय पर यहाँ चार आराधनाओं का आराधन किया है। जैन धर्म जयवंत होवे ।
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अर्थ
शिलालेख नं. 64, शक संवत लगभग 1085 श्री भद्रस्सर्वतो यो हि भद्रबाहुरिति श्रुतः श्रुतकेवलि नाथेषु चरमः परमो मुनिः
अर्थ
सर्व प्रकार से कल्याण कारक, श्रुतकेवलियों में अन्तिम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहु परम मुनि हुए । उनके शिष्य चन्द्रगुप्त हुए जिनका यश चन्द्र समान उज्ज्वल है और जिनके प्रभाव से वन देवता ने मुनियों की आराधना की थी । शिलालेख नं. 67 शकसंवत् लगभग
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चन्द्र प्रकाशोज्वल सान्द्रकीर्तिः
श्री चन्द्र गुप्तौजिन तस्य शिष्यः यस्य प्रभावाद्वन देवताभि राराधितः स्वस्य गुणो मुनीनाम् । ।
वर्ण्यः कथन्तु महिमा भण भद्रबाहुः मोहोकमल्लमदमर्दन वृतः बाले । यच्छिष्यताप्तसुकृतेन च चन्द्रगुप्तः सुश्रूषते स्म सुधिरं वनदेवताभिः ।।
मोह रूपी महायोद्धा के मद को मर्दन करने वाले श्री भद्रबाहु स्वामी की महिमा का वर्णन कौन कह सकता है, जिनके शिष्यत्व के पुण्यप्रभाव से वनदेवताओं ने चन्द्रगुप्त की बहुत दिनों तक सेवा की ।
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( गौतम क्षेत्र में बहने वाली कावेरी नदी के पश्चिम भाग में रामपुर के अधिकतर सिंगरी गोडा के खेत में प्राप्त शिलालेख 9वीं शताब्दी) श्री राज्यविजय सम्वत्सर सत्यवाक्य परमानदिगल्लु आलुत वाल्किनेय वर्षात् मार्गशीर्ष मासद पेरतले दिवासभागे स्वस्ति समस्त विद्यालक्ष्मी प्रधान निवासप्रभव प्रणत सकल सामन्त समूह भद्रबाहु चन्द्रगुप्त मुनिपति चरणलाच्छवाजित विशालसिर कल वप्पु गिरिशनाथ वेलगुलाधिपति गणधा श्रीवर मतिसागर पण्डितभट्टार वेसदोल अन्नयनुं देवकुमारनं धोरनुं इलदुर आरण्णे वाणपल्लिय कोण्ड श्रीके सिग तले नेरिपुल कट्टन कट्ट सुडर के कोट्टस्थिति क्रम व एन्तुव यन्दोदे बंडर नियनीर वयगीय गिड वरिस पेतेन्दि ऐरदनेय वरिसमेड अलविमुरने यवरिस