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संघ और सम्प्रदाय
कि मात्र लौकिक सामंजस्य स्थापित करने के लिए ही वह अपनी दार्शनिकता को ही तिलांजलि दे बैठें, क्योंकि अचेलक और सचेलक व्यवस्था में कोई सामान्य अन्तर नहीं है अपितु इनमें जमीन-आसमान का अन्तर है। पार्श्वनाथ एवं महावीर ने तो अचेलक (नग्नता) का उपदेश दिया ही था साथ ही भविष्य के तीर्थंकर महापद्म भी अचेलकता का उपदेश देगें। यह भी श्वे. मान्य स्थानांग सूत्र में मिलता है
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"से जहाणामए अज्जो । मए समणाणं णिग्गंथाणं णग्गभावे मुंडभावे अण्हाणए अदंतवणए अच्छत्रए अनुबाहणए भूमिसेज्जा, फलगसेज्जा, कट्ठसेज्जा केसलोए बंमचेरव से परधरपवेसे --- । एवामेव महापउमेवि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं णग्गभावं, (मुण्णभाव अण्हाणय (---) लगावलद्धवित्ती पण्ण वेहिति 110
अर्थात् आर्यों, मैने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए जैसे नग्नभाव, मुण्डभाव, स्थान- त्याग, दन्तधावनत्याग, छत्र धारणत्याग आदि का निरूपण किया है उसी प्रकार महापद्म अर्हन्त निरूपण करेगें ।
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यहाँ पर महावीर एवं महापदा के उपदेशों की एकता बतलायी है, परन्तु इस प्रकार का कहीं भी उल्लेख नहीं है कि, दीक्षा के पश्चात् "देवदूष्य भी डाला जाएगा। इससे देवदूष्य की भी कल्पना यथार्थ के बहुत नजदीक नहीं लगती है ।
महावीर के निर्वाण के 200 वर्ष पश्चात् तक संघ भेद के बीज अंकुरित हो चुके थे, यही स्थिति पार्श्वनाथ के साथ रही होगी। महावीर के निर्वाण के उपरान्त दिगम्बर परम्परानुसार 62 वर्ष में क्रमशः गौतम गणधर 12 वर्ष, सुधर्मा स्वामी 11, जम्बूस्वामी 39 वर्ष तक केवली रहे। इस प्रकार 3 केवली हुए और 100 वर्ष में 5 श्रुत केवली - विष्णु कुमार (नन्दि ) 14 वर्ष, नन्दिमित्र 16 वर्ष, अपराजित 22, गोवर्धन 19, भद्रबाहु ( प्रथम ) 29 वर्ष तक श्रुतकेवली रहे । अतः महावीर के निर्वाण पश्चात् 162 वर्ष पर्यन्त केवली और श्रुतवली हुए । श्वेताम्बर परम्परानुसार महावीर के जीवनकाल में ही 9 गणधरों का निर्वाण हो गया था और भद्रबाहु का निर्वाण 170 वर्ष पश्चात् मानते हैं जिसमें दोनों परम्पराओं में भद्रबाहु के निर्वाण में 8 वर्ष का अन्तर रहता है । दिगम्बर परम्परा भद्रबाहु को चन्द्रगुप्त का समकालीन मानती है एवं भद्रबाहु के संघ में चन्द्रगुप्त मौर्य को दीक्षित कहती है, जिस पर विशेष स्पष्टीकरण आगे होगा। परन्तु कुछ परम्पराएं चन्द्रगुप्त को भद्रबाहु का समकालीन नहीं मानती, अपितु चन्द्रगुप्त मौर्य को भद्रबाहु से 60 वर्ष आगे सिद्ध करती हैं । अर्थात् महावीर निर्वाण के 215 वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्याभिषेक कहती हैं । इस सम्बन्ध में जैनेन्द्र सिद्धान्त कोषकार की टिप्पणी द्रष्टव्य है ।