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संघ और सम्प्रदाय
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उन्होंने कांग्रेस के नाम और उसके आदर्शों का भी उपयोग करते हुए अपने दल बनाये, परन्तु वे सफल नहीं हो सके, क्योंकि उनका वैयक्तिक पुण्य प्रताप नहीं था। सम्प्रति जनता स्व. इन्दिरा जी को ज्यादा महत्व देती है, अन्य की अपेक्षा । यदि इन्दिरा जी के पश्चात् अन्य कोई प्रभावी आता है, तभी इन्दिरा जी विस्मृत हो सकती हैं। विभाजन भी हर दल में क्षेत्र में हो जाया करता है। स्वतन्त्रता के पश्चात भी आपसी विभाजन हआ था. और जब कांग्रेस स्थापित हुयी एक शासक के रूप में, तो कालान्तर में उसमें भी विभाजन हो गया। यह एक शाश्वतिक व्यवस्था है।
उपर्युक्त यही शैली व कारण जैनधर्म में विभिन्न संघ/सम्प्रदाय के अभ्युदय के साथ घटित होती है। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ जब धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक हुए, तो उनके नाती ( मारीचि) ने ही विभिन्न विरोधी मत-मतान्तर स्थापित करके अपना विरोध प्रगट किया। विरोध का स्वरूप एवं उसका स्वभाव सिद्ध करने के लिए इससे ज्यादा और कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। यह विरोध कालान्तर में बहुत पल्लवित और पुष्पित भी हुआ।
जैसे वैदिक धर्म में विभिन्न मत-मतान्तर हैं ही, बौद्ध धर्म में भी गौतम बुद्ध के पश्चात् विभिन्न सम्प्रदाय उठ खड़े हुए। उसी प्रकार जैन धर्म में भी महावीर के बाद अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के महाप्रयाण पश्चात् विभिन्न मत मूलतः आचार पक्ष को लेकर उठ खड़े हुए। पृथकता का मूल कारण श्रमण चर्या के अन्तर्गत अचेलक-सचेलक व्यवस्था को लेकर रहा। कालान्तर में इसी परिप्रेक्ष्य में तीर्थंकरों की पूजा-पद्धति एवं प्रतिमा-निर्माण पद्धति में भेद स्पष्ट रूप से आ गया। महावीर के पश्चात् केवली और श्रुत केवली के विच्छिन्न होने पर विभिन्न संघ/संप्रदाय के आचार्य महावीर का नाम लेकर ही आगे बढ़ सके, क्योंकि उस समय तक उनके धर्म से साक्षात् परिचित थे। इसी कारण श्वे. सम्प्रदाय के मूल आगमों में अचेलक की ही प्रमुखता है। वस्तु को लेकर जिनकल्प और स्थविर कल्प का भेद नहीं, परन्तु जब इस सम्प्रदाय के आचार्यों का व्यक्तिगत प्रभाव बढ़ा, तो अपनी मान्यता भी महावीर के नाम पर चला दी, क्योंकि प्रामाणिकता के लिए महावीर के नाम को साथ लेकर चलना अत्यावश्यक था, इसके बिना वे सामान्य वर्ग में श्रद्धास्पद नहीं हो पाते, इन सब का विशेष विचार सम्बन्धित प्रकरणों में प्रस्तुत करेंगे। हमारा शोध विषय श्रमण के स्वरूप की महावीर के परिप्रेक्ष्य में गवेषणा करना है। अतः श्रमण के स्वरूप की विवेचना करना ही हमारा प्रतिपाद्य केन्द्र बिन्दु रहेगा। सम्प्रदाय भेद, उत्पत्ति ।
दिगम्बर एवं श्वेताम्बर श्रमण स्वरूप विभाजन अचेलक, सचेलक तथ्यों को लेकर है। इस बात में सभी विद्वान एक मत है। इस स्वरूप भेद का कारण यह कहा जाता है कि भगवान महावीर ने ही दोनों व्यवस्थाओं को स्वीकृत कर समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया था। यह बात यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ही कहीं जाती है। श्वेताम्बरीय आगमों में