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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
समय दिगम्बर जैनों की संख्या वहाँ ज्यादा थी और उनके आचार्यों का प्रभाव कलभ्रों पर विशेष था। 103
वैष्णव तमिल साहित्य "वेतारम" नाम ग्रन्थ से ई. सातवीं-आठवीं शताब्दी के जैन श्रमणों का ज्ञान होता है । अरुलनन्दि शैवाचार्य कृत "शिवज्ञानसिद्धियार में परपक्ष सम्प्रदायों में दिगम्बर जैनों का " श्रमणरूप" उल्लिखित है । 1 104 तथा " हालास्यमहात्म्य" में मदुरा के शैवों तथा दिगम्बर मुनियों के वाद का वर्णन मिलता है। 105
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत के पुरातत्व, साम्राज्य, एवं साहित्य में, सभी विधाओं पर जैन श्रमणों के सन्दर्भ में सहस्रों वर्षों से सम्माननीय उल्लेख मिलते हैं । जिनका विशेष एवं विस्तृत अध्ययन श्री कामता प्रसाद जी की पुस्तक "दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि से किया जा सकता है । यहाँ पर श्रमणों का "स्वरूपगत" अध्ययन विवक्षित होने के कारण, उसी पर विस्तार से अध्ययन अपेक्षित रहा है। (ड.) संघ और संप्रदाय
भेद : भूमिका
विश्व की यह एक अकाट्य एवं त्रिकाल व्यवस्था है कि प्रत्येक प्रभावशाली व्यक्तित्व के पश्चात् उसकी संघ-व्यवस्था में दरार आ ही जाती है। यह तथ्य, हर क्षेत्र में, चाहे वह राजनैतिक, धार्मिक या पारिवारिक ही क्यों न हो, लागू रहता है। वस्तुतः राजा की राजनीति नहीं अपितु उसका राजनैतिक प्रभाव लोगों को प्रभावित करता है और जब उसका प्रभाव (दार्शनिक भाषा में संचित पुण्य) क्षीण हो जाता है तो उसकी एक भी राजनीति कारगर नहीं होती है । आज के भारतीय राजनैतिक क्षेत्र में उपर्युक्त तथ्य की संगति समझी जा सकती है। भारत की आजादी के पश्चात् विभिन्न राजनैतिक दल प्रकाश में आए, उसमें महात्मा गांधी के प्रभाव को लेकर चलने वाली कांग्रेस सबसे ज्यादा सफल रही, क्योंकि उस समय महात्मा गांधी के नाम का पर्याप्त प्रभाव था और कांग्रेस महात्मा गांधी के नाम और उनके आदर्शों को लेकर चली जिससे वह काफी सफल और जनमानस में अमिट छाप छोड़ सकी। किसी भी क्षेत्र में लोग प्रारंम्भिक अवस्था में किसी महान व्यक्ति के व्यक्तित्व / आदर्शो को लेकर चलते हैं और जब उसका अपना व्यक्तित्व / आदर्श स्थापित हो जाता है तो लोग पूर्व के व्यक्तित्वों को प्रायः भूल जाया करते हैं। इस ही पद्धति से व्यक्तित्वों का भावी इतिहास भी सुरक्षित रहता है । यद्यपि यह तथ्य लोगों को अटपटा लगे, परन्तु लोक-शैली की यह यथार्थ अनुभूति है । स्व. प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी पूर्व में महात्मा गांधी को लेकर चलीं और सदैव विजयी रहीं, जिससे उनका अपना पुण्य प्रताप सामने आने लगा, यद्यपि कालान्तर में उनका पुण्य प्रताप क्षीण भी हुआ, जिससे वे सत्ता से पदच्युत भी हुयीं और फिर एक बार सत्ता में अपने व्यक्तिगत प्रभाव को अपने ही आदर्शों को लेकर आयीं और सत्ता में प्रभावी रूप से छायी रहीं। इस दौरान कुछ लोगों ने कांग्रेस की प्रतिष्ठा को ही स्व. इन्दिरा जी की विजय का प्रमुख कारण माना और