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जैन श्रमण : और वातरशना
भाव को ( अशरीरी ध्यान वृति को) प्राप्त होते हैं, और तुम साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीर मात्र को देख पाते हो, हमारे सच्चे आभ्यंतर को नहीं ( ऐसा वे वातरशना मुनि प्रकट करते हैं)61
ऋग्वेद में उक्त ऋचाओं के साथ में केशी की स्तुति की गयी है।
केश्यग्नि केशी विषं केशी विभर्ति रोदसी।
केशी विश्वं स्वर्दशे केशीदं ज्योतिरुच्यते।।62 अर्थात् केशी, अग्नि, जल तथा स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है। केशी समस्त विश्व के तत्वों का दर्शन कराता है। केशी ही प्रकाशमान (ज्ञान) ज्योति (केवलज्ञानी) कहलाता है।
केशी की यह स्तुति उक्त वातरशना मुनियों के वर्णन आदि में की गयी है, जिससे प्रतीत होता है कि केशी वातरशना मुनियों के प्रधान थे।
ऋग्वेद के इन केशी व वातरशना मुनियों की साधनाओं का भागवत पुराण में उल्लिखित वातरशना श्रमण ऋषि उनके अधिनायक ऋषभ और उनकी साधनाओं से तुलना करने योग्य है। ऋग्वेद के वातरशना मनि और भागवत के वातरशना श्रमण ऋषि एक ही सम्प्रदाय के वाचक हैं यह तो निःसन्देह स्वीकृत है। केशी का अर्थ केशधारी होता है जिसका अर्थ सायणाचार्य ने "केशस्थानीय रश्मियों को धारण करने वाले" किया है और उससे सूर्य का अर्थ निकाला है। किन्तु उसकी कोई सार्थकता व संगति वातरशना मुनियों के साथ नहीं बैठती, जिसकी साधनाओं का उस सूक्त में वर्णन है। केशी स्पष्टतः वातरशना मुनियों के अधिनायक ही हो सकते हैं जिनकी साधना में मलधारण, मौनवृत्ति और उन्माद भाव का विशेष उल्लेख है। सूक्त में आगे उन्हें ही "मुनिर्देव देवस्य सौ कृत्याय सखाहितः "63 अर्थात् देव देवों के मुनि व उपकारी और हितकारी सखा कहा है। वातरशना शब्द में और मूलरूपी वसन धारण करने में उनकी नाग्न्य वृत्ति का भी संकेत है।
केसर, केश और जटा एक ही अर्थ के वाचक हैं "सटाजटा-केसरयोः" । सिंह भी अपने केशों के कारण केसरी कहलाता है। इस प्रकार केशी और केसर एक ही केसरिया नाथ या ऋषभनाथ के वाचक प्रतीत होते हैं। जैन पुराणों में ऋषभ की जटाओं का उल्लेख किया गया है। पद्मपुराण ( 3,288 ) में वर्णन है-"वातोढ़ता जटास्तस्यरेजुराकुल मूर्तयः"
और हरिवंश पुराण में (9,204) में कहा है कि-"स प्रलम्बजटाभारभ्राजिष्णुः"। इस . प्रकार ऋग्वेद के केशी और वातरशना मुनि, तथा भागवतपुराण के ऋषभ और वातरशना श्रमण ऋषि एवं केशरिया नाथ ऋषभ तीर्थंकर और उनका निम्रन्थ सम्प्रदाय एक ही सिद्ध होते हैं।64