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भारतीय पुरातत्व और जैन श्रमण
उनकी मजार है जिस पर मैंने स्वयं बहुत लोगों को नित्य नमाज पढ़ते देखा है । मस्जिद बहुत सुन्दर है तथा बाहर उसकी फोटो लगी है । परन्तु वह सवस्त्र है ।
और जैन श्रमण :
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(ख) भारतीय पुरातत्व
(1 ) मोहन - जो- डारो का पुरातत्व
भारतीय पुरातत्व में सिन्धुघाटी की मोहन - जो डारो एवं हड़प्पा नामक ग्रामों में प्राप्त पुरातत्व प्राचीनतम माना जाता है। विद्वानों के अनुसार उसका जीवन काल 6000 से 2400 वर्ष ईसा से पूर्व माना है । वहाँ से कायोत्सर्ग ( खड़ी हुयी दोनों हाथ लटकाये ध्यानदशा जो कि जैन श्रमणां का ही वेप है ) में योगियों की पाषाण प्रतिमाएँ प्राप्त हुयी हैं। इस सम्बन्ध में ही सर जानमार्शल का कथन है कि "सिन्धु संस्कृति एवं वैदिक संस्कृति के तुलनात्मक अध्ययन से यह बात निर्विवाद सिद्ध होती है कि इन दोनों संस्कृतियों में परस्पर कोई सम्बन्ध या सम्पर्क नहीं था। वैदिक धर्म सामान्यतया अमूर्ति पूजक है, जबकि मोहनजोडारी एवं हड़प्पा में मूर्तिपूजा सर्वत्र स्पष्ट परिलक्षित होती है । मोहन जो डारो के मकानों में हवन कुण्डों का सर्वथा अभाव है।"
रामप्रसाद चाँदा का कथन है कि "सिन्धु घाटी की अनेक मुद्राओं में अंकित न केवल बैठी हुयी देवमूर्तियां योगमुद्रा में है और उस सुदूर अतीत में सिन्धु घाटी में योग मार्ग के प्रचार को सिद्ध करती है अपितु खड्गासन देवमूर्तियां भी योग की कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं, और यह कायोत्सर्ग ध्यान मुद्रा विशेष रूप से जैनों की हैं। आदि पुराण में इस कायोत्सर्ग मुद्रा का उल्लेख ऋषभ या वृषभदेव के तपश्चरण के सम्बन्ध में बहुधा हुआ है। भगवान ऋषभ की इस कायोत्सर्ग मुद्रा में खड्गासन प्राचीन मूर्तियाँ ईस्वी सन् के प्रारम्भ की मिली हैं। प्राचीन मिस्र में प्रारम्भिक राजवंशों के समय की दोनों हाथ लटकाये खड़ी मूर्तियाँ मिलती हैं किन्तु इन प्राचीन मिस्री मूर्तियों तथा प्राचीन यूनानी कुरोई नामक मूर्तियों में प्रायः वही आकृति है, तथापि उनमें उस देहोत्सर्ग-निःसंग भाव का अभाव है, जो सिन्धु घाटी की मुद्राओं पर अंकित मूर्तियों में तथा कायोत्सर्ग मुद्रा से युक्त ( जिन ) मूर्तियों में पाया जाता है।"वृषभ"भगवान ऋषभ का चिन्ह है। प्रो. रानाडे के अनुसार "ऋषभदेव ऐसे योगी थे जिनका देह के प्रति पूर्ण निर्ममत्व उनकी आत्मोपलब्धि का सर्वोपरि लक्षण था ।" प्रो. प्राणनाथ विद्यालंकार न केवल सिन्धु घाटी के धर्म को जैनधर्म से सम्बन्धित मानते हैं, वरन् वहाँ से प्राप्त एक मुद्रा पर तो उन्होंने "जिनेश्वर ( जिनइइसरह) शब्द भी अंकित रहा बताया है। प्रो. एस. श्री कण्ठशास्त्री का कहना है कि " अपने दिगम्बर धर्म, योगमार्ग, वृषभ आदि विभिन्न चिन्हों की पूजा आदि बातों के कारण प्राचीन सिन्धु सभ्यता जैनधर्म के साथ अद्भुत सादृश्य रखती है। अतः वह मूलतः अनार्य अथवा कम से कम अवैदिक तो है ही ।