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जैन श्रमण : स्वरुप और समीक्षा
का वृहत संघ रहता था।
(6) राजगृह (बिहार) का पुरातत्व :
राजगृह का पुरातत्व भी गुप्तकाल में वहाँ जैन श्रमणों के बाहुल्य का सूचक है। वहाँ के गुप्तकालीन नग्न जैन प्रतिमाओं के निम्न शिलालेख द्रष्टव्य हैं।
निर्वाणलाभाय तपस्वि योग्ये शुभेगुहेऽर्हत्प्रतिमाप्रतिष्ठे।
आचार्यरत्नम् मुनिवैरदैवः विमुक्तये कारय दीर्घतजः ।9 ___ अर्थात निर्वाण की प्राप्ति के लिए तपस्वियों के योग्य और श्री अर्हन्त की प्रतिमा से प्रतिष्ठित शुभ गुफा में मुनि वैरदेव को मुक्ति के लिए परम तपस्वी आचार्य पद रूपी रत्न प्राप्त हुआ अर्थात् मुनि वैरदेव को श्रमण संघ ने आचार्य पद में स्थापित किया।" इस शिलालेख के निकट ही एक नग्न मूर्ति का निम्न भाग उत्कीर्ण है, जिससे इसका सम्बन्ध दिगम्बर श्रमणों से स्पष्ट है।80
(7) बंगाल का पुरातत्व :
गुप्तकाल और उसके बाद कई शताब्दियों तक वंगाल, आसाम और उडीसा प्रान्तों में दिगम्बर जैन धर्म का प्रचलन था। नग्न जैन प्रतिमाएं वहाँ के कई जिलों में बिखरी हुयी मिलती हैं। पहाड़पुर (राजशाही) गुप्तकाल में एक जैन केन्द्र था।81 वहाँ से प्राप्त एक ताम्रलेख दिगम्बर श्रमण संघ का द्योतक है। उसमें अंकित है कि गुप्त सं. 159 (सन् 478 ) में एक ब्राह्मण दम्पत्ति ने निर्ग्रन्थ विहार की पूजा के लिए वटगासहली ग्राम में भूमिदान दी थी। निर्ग्रन्थ संघ आचार्य गुहनन्दि और उनके शिष्यों द्वारा शासित था।82
(8) कादम्ब राजाओं के ताम्रपत्रों में जैन श्रमण :
देवगिरि से प्राप्त कादम्बवंशी राजाओं के ताम्रपत्र ई. पाँचवी शताब्दि में दिगम्बर श्रमणों के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। एक लेख में है कि महाराजा कादम्ब श्रीकृष्ण वर्मा के राजकुमार पुत्र देववर्मा ने जैन मन्दिर के लिए यापनीय संघ के दिगम्बर श्रमणों को एक खेत दान दिया था। दूसरे लेख में प्रगट है कि "काकुष्ठ वंशी श्री शान्तिवर्मा के पुत्र कादम्ब महाराज मृगेश्वर वर्मा ने अपने राज्य के तृतीय वर्ष में परलूरा के आचार्यों को दान दिया था। तीसरे लेख में कहा गया है कि-"इसी मृगेश्वर वर्मा ने जैन मन्दिरों में और निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) तथा श्वेतपट (श्वेताम्बर) संघों के साधुओं के व्यवहार के लिए एक कालवंग्ड. नामक ग्राम अर्पण किया था।83
उदयगिरि (भेलसा) में पाँचवी शताब्दि की बनी हुई गुफाएं हैं। जिनमें जैन श्रमण ध्यान किया करते थे ऐसा उनमें लेख भी है।84