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भारत के विभिन्न साम्राज्यों में जैन श्रमण
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भारतीय सन्तों की शिक्षा का प्रभाव यूनानियों पर विशेष रुप से था। डायजिनेस (Digenes ) नामक यूनानी तत्ववेत्ता ने दिगम्बर वेष धारण किया था 4 और यूनानियों ने नग्न प्रतिमाएँ बनवायी थीं।95
इस तरह महान सम्राट सिकंदर के साम्राज्य में भी जैन श्रमणों की प्रतिष्ठा प्रतिष्ठित
थी।
अन्तिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ का उसके सेनापति पुष्यमित्र सुंग ने वध कर दिया था। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य को समाप्त करके पुष्यमित्र ने "सुंग राजवंश" की स्थापना की थी। नन्द और मौर्य साम्राज्य में जहाँ जैन और बौद्ध धर्म उन्नत हुए थे, वहीं सुंग राज्य में ब्राह्मण. धर्म उन्नत हुआ था परन्तु पुष्यमित्र के राजप्रसाद के सन्निकट नन्दराज द्वारा लायी गयी "कलिंग जिन" की सुरक्षा इस बात को भी सिद्ध करती है कि इस शासन में जैन धर्म पर कोई राजकीय संकट नहीं था।
सम्राट एलखारवेल आदि कलिंग सम्राटों के समय भी जैन श्रमणों का स्वरुप निराबाध था। इस समय मथुरा, उज्जैनी, और गिरिनगर जैन ऋषियों के केन्द्र स्थान थे। खारवेल ने जैन श्रमणों का एक सम्मेलन आयोजित किया था और मथुरा, उज्जैनी, गिरिनगर, काचीपुर आदि स्थानों से दिगम्बर श्रमण उस सम्मेलन में भाग लेने के लिए कुमारी पर्वत पर पहुँचे थे, और बहुत बड़ा धर्म महोत्सव किया गया था। बुद्धिलिंग, देव, धर्मसेन, नक्षत्र आदि दिगम्बर जैनाचार्य उस महासम्मेलन में एकत्रित हुए थे। इन श्रमणों ने मिलकर जिनवाणी का उद्धार किया था,तथा सम्राट खरवेल के सहयोग से वे जैन धर्म के प्रचार करने में सफल हुए थे।
ऐलखारवेल के पश्चात् उनके पुत्र कुदेपश्री खर महामेघवाहन कलिंग के राजा हुए थे। वे भी जैन धर्मानुयायी थे।
गुप्तवंश के राज्यकाल में यद्यपि ब्राह्मण वंश की उन्नति थी किन्तु जन सामान्य में अब भी जैन और बौद्ध धर्मों का ही प्रचार था। गुप्तसम्राट अब्राह्मण साधुओं से द्वेष नहीं रखते थे। इसी प्रकार हर्षवर्धन तथा हुएनसांग के समय में भी जैन श्रमणों का विहार होता था एवं उनकी प्रतिष्ठा थी। पश्चातवर्ती मध्यकालीन हिन्दु राजपूत, मालवा के परमार, राजा भोज, तथा गुजरात के शासकों के मध्य में भी जैन श्रमण स्वरूप प्रतिष्ठित एवं लोकप्रिय रहा था।