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जैन श्रमण : और इस्लाम
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उक्त वातरशना मुनियों की जो मान्यता व साधनाएँ वैदिक ऋचा में भी उल्लिखित हैं उन पर से हम इस परम्परा को वैदिक परम्परा से पृथक रुप से स्पष्टतः समझ सकते हैं। वैदिक ऋषि वैसे त्यागी और तपस्वी नहीं थे, जैसे ये वातरशना मुनि थे। वे ऋषि स्वयं गृहस्थ है, यज्ञ सम्बन्धी विधि विधान में आस्था रखते हैं और अपनी इहलौकिक इच्छाओं जैसे पुत्र, धन, धान्य आदि सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए इन्द्रादि देवी देवताओं का आह्वान करते-कराते हैं, तथा इसके उपलक्ष्य में यजमानों से धन सम्पत्ति का दान स्वीकार करते हैं। किन्तु ठीक इसके विपरीत ये वातरशना मुनि उक्त क्रियाओं में रत नहीं होते। समस्त गृहद्वार, स्त्री-पुत्र, धन-धान्य आदि परिग्रह, यहाँ तक कि वस्त्र का भी परित्याग कर,
भावत्ति से रहते हैं। शरीर का स्नानादि संस्कार न कर मल धारण किये रहते हैं - मौन वृति से रहते हैं तथा अन्य देवी देवताओं के आराधन से मुक्त आत्मध्यान में ही अपना कल्याण समझते हैं। स्पष्टतः यह उस श्रमण परम्परा का प्राचीन रुप है जो आगे चलकर अनेक अवैदिक सम्प्रदायों के रूप में जानी गयी और जिनमें से दो अर्थात् जैन एवं बौद्ध सम्प्रदाय आज तक भी विद्यमान हैं। प्राचीन समस्त भारतीय साहित्य, वैदिक, बौद्ध व जैन तथा शिलालेखों में भी ब्राह्मण और श्रमण धमों का उल्लेख पाया जाता है।
अतः वेदों में कथित "तातरशना" जैन श्रमणों से ही प्रभावित एक रुप है।
जैन श्रमण और इस्लामः
जैन श्रमणों का प्रभाव एवं उल्लेख हिन्दु धर्म के अतिरिक्त अन्य इस्लाम आदि धर्मों पर भी पड़ा है।
__ यद्यपि इस्लाम किसी न किसी रूप में हिंसक वृत्ति का परिचायक ही रहा है एवं यह भारत के लिए विदेशी धर्म भी रहा है, तथापि यह भारत में जैन श्रमणों के निसंग व निष्कलंक रुप से अप्रभावित न रह सका।
पैगम्बर हजरत मुहम्मद का कम वस्त्रों का परिधान एवं हाथ की अंगूठी भी उनकी नमाज़ में बाधक हुआ करती थी। किन्तु यह उनके लिए इस्लाम के उस जन्म काल में संभव नहीं था कि वह खुद नग्न होकर त्याग और वैराग्य-तर्के दुनिया का श्रेष्ठतम उदाहरण प्रस्तुत करते, यह कार्य उनके पश्चात् हुए इस्लाम के सूफी तत्ववेताओं के भाग में आया। उन्होंने "तर्क" अथवा त्याग धर्म का उपदेश स्पष्टतः इस तरह दिया।
___ "To Abandon the world, its comforts and dress,-all things now and to come.-conformably with the Halles of the Prophet"