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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
इस पंक्ति का अर्थ यह किया गया कि भगवान का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए लोगों को कैवल्य शिक्षा देने के लिए हुआ। किन्तु उक्त वाक्य का यह अर्थ भी संभव है कि यह अवतार रज से उपप्लुत अर्थात रजोधारण (मलधारण) वत्ति द्वारा अर्थात् नग्न वति द्वारा अर्थात् पूर्ण नग्नता में ही रज अर्थात् धूल शरीर से लग सकती है। इस प्रकार के बाह्य भेष द्वारा कैवल्य प्राप्ति की शिक्षा देने के लिए हुआ था।"
जैन श्रमणों की वृत्ति में अस्नान, अदन्तधावन, मलपरीषह आदि द्वारा रजोधारण संयम का आवश्यक अंग माना गया है। बुद्ध के समय में भी रजोजल्लिक श्रमण विद्यमान थे। बुद्ध भगवान ने श्रमणों की आचारप्रणाली में व्यवस्था लाते हुए एक बार कहा था
"नाहं भिक्खवे संघाटिकस्य संघाटिधारएमत्तेन सामज्जवदामि अचेलकस्स अचेलकमत्तेन रजोजल्लिकस्स रजोजल्लिकमतेन---जटिलकस्य जटाधारणमत्तेन सामजं वदामि"59
अर्थात हे भिक्षुओ! मैं संघाटिक के संघाटी धारण मात्र से श्रामण्य नहीं कहता, अचेलक के अचेलकत्वमात्र से, रजोजल्लिक के रजोजल्लिकत्व मात्र से और जटिलक के जटाधारणमात्र से भी श्रामण्य नहीं कहता।
उपर्युक्त प्रसंग में प्रश्न है कि जिन वातरशना मुनियों के धर्मों की स्थापना करने तथा रजोजल्लिक वृत्ति द्वारा कैवल्य की प्राप्ति सिखाने के लिए भगवान ऋषभदेव का अवतार हुआ था, वे कब से भारतीय साहित्य में उल्लिखित पाये जाते हैं। इसके लिए जब हम भारत के प्राचीनतम ग्रन्थ वेदों को देखते हैं तो हमें वहाँ भी वातरशना मुनियों का उल्लेख अनेक स्थलों में दिखाई देता है।
ऋग्वेद की वातरशना मुनियों के सम्बन्ध की ऋचाओं में उन मुनियों की साधनायें द्रष्टव्य हैं:
मुनियों वातरशनाः पिशंगा वसते मला । वातस्यानु धाजिं यन्ति यदेवासो अविक्षतं ।। उन्मदिता मौनेयेन वातां आतस्थिमा वयम।
शरीरेदस्माकं यूयं मर्तासो अभिपश्यथ ।।60 सायण भाष्य की सहायता से डॉ. हीरालाल जी ने इसका अर्थ निम्न किया है "अतीन्द्रियार्थ दर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते हैं जिससे वे पिंगल वर्ण के दिखायी देते हैं। जब वे वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं अर्थात् रोक लेते हैं तब वे अपनी तप की महिमा से दीप्यमान होकर देवता स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। सर्व लौकिक व्यवहार को छोड़कर हम मौन वृत्ति से उन्मत वत् ( उत्कृष्ट आनन्द सहित) वायु