________________
जैन श्रमण और हिन्दु धर्म
37
इसी ग्रन्थ के स्कन्ध 2, अध्याय 7, पृ. 76 में इन्हें "दिगम्बर और जैन मत का चलाने वाला" उसके टीकाकार ने लिखा है।"38 इस ही ग्रन्थ के स्कन्ध 5, अध्याय 6, श्लोक 8-11 में यह भी लिखा है कि "इनकी ही शिक्षाओं को लेकर कलियुग में अमुक - अमुक व्यक्ति धर्म का प्रचार करेंगे। इससे यह तथ्य तो स्पष्ट है कि भगवान ऋषभ देव को विष्णु का अष्टम अवतार लिखने वाला भागवत ही जैनधर्म और भगवान ऋषभदेव की शिक्षाओं में भिन्नता नहीं मानता है। जिस महापुरुष ने जैनधर्म की शिक्षा एवं तीर्थ प्रवर्तन किया हो वही जैन तीर्थंकर है भले ही ऐसे महायुग पुरुष को कोई शास्त्र किसी नाम से सम्बोधित क्यों न करे। इससे यह तथ्य प्रगट है कि भारतीय साहित्य केवल भगवान ऋषभदेव के वंश परिचय के सम्बन्ध में ही एकमत नहीं हैं अपितु उनके तीर्थंकर होने के सम्बन्ध में भी एकमत हैं।
नारद परिव्राजकोपनिषद में छठवें उपदेश के 21 वें सूत्र में कहा है कि "मुमुक्षुः परमहंसाख्यः साक्षान्मोक्षक साधनम्" इस वाक्य द्वारा परमहंस को साक्षात् मोक्ष का एकमात्र साधन बतलाया है। वस्तुतः जैनेतर शास्त्रों में जहाँ कहीं ऋषभदेव आदिनाथ का वर्णन आता है - उनको परमहंस मार्ग का प्रवर्तक बतलाया है।39
एक तथ्य यहाँ द्रष्टव्य है कि ऋषभदेव/आदिनाथ के सम्बन्ध में ही यह वर्णन जैन जैनेतर शास्त्रों में मिलता है, किसी और अन्य प्राचीन मत प्रवर्तक के सम्बन्ध में नहीं - कि वह स्वयं दिगम्बर रहा हो और उन्होंने दिगम्बर धर्म का उपदेश दिया हो। परमहंसोपनिषद के निम्न उद्धरण इस तथ्य का उद्घाटन करते हैं कि परमहंस धर्म के संस्थापक जैन संस्कृति से प्रभावित अवश्य रहे होंगे।
__ "तदेतद्विज्ञाय ब्राह्मणः पात्रकमण्डलुं कटिसूत्रं कौपीनं च तत्सर्वमप्सु विसृज्या जातरुपधरश्चरेदात्मानमन्विच्छेद यथाजातरुपधरो निन्दो निष्परिग्रहस्तत्व ब्रह्ममार्गे सम्यक्सम्पन्नः: शुद्धमानसः प्राणसंधारणार्थ यथोक्तकाले पंचगृहेषु तु करपात्रेण या चिताहार-माहरन् लाभालाभे समोभूत्वा निर्ममः शुक्लध्यानपरायणाऽध्यात्मनिष्ठः शुभाशुभकर्मनिर्मूलनपरः परमहंस पूर्णानन्दैकबोध् स्तदब्रह्मोऽमोऽहमस्मीति ब्रह्मप्रणवमनस्मरन्भ्रमर कीटक न्यायेन शरीरत्रयमुत्सृज्य देह त्यागं करोति स कृतकृत्यो भवतीत्युपनिषद् ।40
___ अर्थात् "ऐसा जानकर ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञानी) पात्र, कमण्डलु, कटिसूत्र और लंगोटी इन सब चीजों को पानी में विसर्जित कर जन्म समय के वेष को धारण कर अर्थात् बिलकुल नग्न होकर विचरण करे और आत्मान्वेषण करे। जो यथाजात रूपधारी, निर्द्वन्द निष्परिग्रह, तत्वब्रह्ममार्ग में भले प्रकार सम्पन्न, शुद्ध हृदय, प्राणधारण के निमित्त यथोक्त समय पर अधिक से अधिक पाँच घरों में विहारकर कर-पात्र में अयाचित भोजन लेने