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की पूजा करना आवश्यक है। विचार करने पर प्रश्न का उत्तर शास्त्रों से यही सिद्ध होता है कि सत्यार्थ देव, शास्त्र (वाणी), गुरु की पूजा करना चाहिए। इन तीन पूज्य रत्नों की पूजा या उपासना करने से ही पूजक की आत्मा पवित्र होती है। आत्महित का मार्ग ज्ञात होता है। सत्यार्थ देव की परिभाषा है- जो सर्वज्ञ, वीतराग और सब प्राणियों को हित का उपदेश करनेवाला हो उसकी सत्यार्थ देव कहते हैं, जिस महात्मा को अर्हन्त, जिन, जीवन्मुक्त, सकलपरमात्मा इत्यादि नामों से स्मरण करते हैं। सत्यार्थ देव का प्रथम विशेषण 'सर्वज्ञ' हे जिसका स्पष्ट अर्थ होता है कि जिस महात्मा के ज्ञानावरण कर्मदोष के नाश होने से सम्पूर्ण ज्ञान, दर्शनावरण कर्मदोष के नाश होने से पूर्ण दर्शन (पूर्णद्रष्टा ), मोहनीय कर्मदोष के अभाव से अक्षय सुख (शान्ति) और अन्तराय कर्मदोष के अभाव से पूर्ण शक्ति (आत्मबल) ये चार सम्पूर्ण निर्मलगुण विकसित हो गये हैं उसको सर्वज्ञ या पूर्ण ज्ञाता द्रष्टा कहते हैं ।
द्वितीय विश्लेषण 'वीतराग' का अर्थ होता है कि जिसने आत्मबल से अठारह दोषों को जीत लिया है, 18 दोषों के नाम इस प्रकार हैं- (1) जन्म, (2) जरा, (3) तृषा, (प्यास), (4) क्षुधा (भूख ), ( 5 ) आश्चर्य, (G) अरति (7) दुःख (8) रोग, (9) शोक, ( 10 ) मद, (11) मोह, ( 12 ) भय, ( 13 ) निद्रा (14) चिन्ता (आकुलला), ( 13 ) स्वेदमल, ( 16 ) राग, ( 17 ) प, (३) मरण ।
तृतीय विश्लेषण - हितोपदेशी' यह होता है जो जीवन्मुक्त या अर्हन्त हो, विशद् केवलज्ञानी हो, कर्मकलंक से रहित हो, कृतकृत्य या सिद्ध साध्य प्राप्त हो, अक्षय हो, विश्व के प्राणियों का कल्याण करनेवाला हो। सारांश यह है कि जो महान् आत्मा सर्वदर्शी वीतराग और हितोपदेशक हो वही वास्तव में सत्यार्थ देव हो सकता है, स्वयं विचार करें कि जो अल्पज्ञानी या मिथ्या- ज्ञानी हो, रागी दोषी हो, और हित की वाणी न कह सकता हो वह यथार्थ देव कैसे हो सकता है, कदापि नहीं ।
तीन रत्नों में दूसरा रत्न शास्त्र की परिभाषा इस प्रकार ज्ञातव्य है जो यथार्थ आप्त (अर्हन्त) द्वारा उपदिष्ट हो, जिस देव की वाणी को कोई असत्य सिद्ध न कर सकें, प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, तर्क आदि प्रमाणों से विरोध रहित हो, वस्तुतत्त्व का कथन करनेवाला हो, समस्त प्राणियों का कल्याण करनेवाला हो, हिंसा, असत्य, अन्याय, मद्यपान, माया, मद, लोभ आदि दोषों का नाश करनेवाला हो, श्री गणधर एवं उनके शिष्य आचार्यों द्वारा रचित हो, वही वास्तव में 'शास्त्र कहा जाता है। इसी को दूसरे शब्दों में दिव्य ध्वनि, दिव्योपदेश, जिनशासन, जिनवाणी, आगम, सरस्वती, द्वादशांगवाणी, सिद्धान्त, स्यादवादद्याणी आदि नामों से कहते हैं। भगवान महावीर या अर्हन्त देव की वाणी इस कारण से सत्य हे क्योंकि वे ज्ञानावरण आदि दोष से रहित हैं, वक्ता की प्रामाणिकता से उसके वचनों में प्रभागता सिद्ध होती है, निर्दोष व्यक्ति के वचन निर्दोष और अज्ञानी सदोष व्यक्ति के वचन सदोष होते हैं। भगवान अर्हन्त की मा तीथंकर महावीर की वाणी में सत्यता सिद्ध करने की
जैन पूजा-काव्य का उद्भव और विकास : 47