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सद्यो भुजंगममया इव मध्यभागमभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य || क्रोधस्त्वया यदि विभो ! प्रथमं निरस्तो ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौराः । प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके नीलमाणि विपिनानि न किं हिमानी ॥ त्वं नाथ! जन्मजलधेर्विपराङ्मुखोऽपि यत् तारयस्यसुमतो निजपृष्ठलग्नान् । युक्तं हि पार्थिवनिपस्य सतस्तवैव चित्रं विभो ! यदति कर्मविपाकशून्यः॥
इस काव्य में व्यतिरेक, आश्चर्य एवं श्लेष अलंकारों के संकर से काव्य का सौन्दर्य अधिक ऊँचा हो गया है जो विज्ञजनों को भक्तिरस का मधुरपान कराता है।
विश्वेश्वरोऽपि जनपालक दुर्गतस्त्वम् किं वाक्षर प्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश । अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकासहेतु।
इस प्रकार शब्द श्लेष अलंकार द्वारा विरोधाभास अलंकार का चमत्कार इस काव्य में शोभित हो रहा है।
आकणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जनबान्धव! दुःखपात्रं यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ॥
इस अलंकृत श्लोक में उत्प्रेक्षा तथा अर्थान्तरन्यास अलंकारों ने भक्तिरस की नदी के प्रवाह को वृद्धिंगत कर दिया है। साथ ही नीति द्वारा भगवान् के भक्तों को सावधान किया गया है कि आप भावपूर्वक पूजन-भजन करें ।
विषापहारस्तोत्र
संस्कृत के महाकवि धनजय ने ईशा सन् की आठवीं शती में भारतीय संस्कृत साहित्य के विकास में योगदान दिया। एक समय आप मन्दिर में शुद्ध भावों से पूजन करते हुए भक्तिरस में लीन हो रहे थे। इसी समय आप के इकलौते पुत्र को सर्प
1. उक्त पुस्तक, पृ. क्रमशः 195, 135, 148, 199, 140
98 जैन पूजा- काव्य एक चिन्तन