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उपगीतिका छन्द
ओं रहा है और रहेगा सतत उच्च सदभावागार । परमब्रह्म आनन्द ओं है ओं अमूर्त शून्य आकार ।
ओं पंचपरमेष्ठीमण्डित ओं ऊर्ध्वगति का धारी। केवलज्ञान निकुंज ओं है ओं अमर धुव अविकारी॥ ओं ह्री के रूप मनोहर करते जिसमें विमलप्रकाश । अमर ज्ञानदर्शन का है जो एकमात्रतम दिव्य निवास । वही परम उत्कृष्ट ओं ही है त्रिभुवनमण्डल में सार। वहो देव गुण शास्त्र आचरण वही धर्म सभावागारा।'
कवित्तछन्द 31 मात्रा
संघसाइत श्री कुन्दकुन्दगुरू, बन्दम हेत गये गिरनार । वाद परो तहें संशयमति सौं, साक्षी बदी अम्बिकाकार । 'सत्यपन्थ' निरग्रन्थ दिगम्बर, कही पुरी तहँ प्रकट पुकार
सो गुरुदेव बसी र मेरे, विधन हरण मंगल करता पवा-इस काम में श्री कुरकुर आर्य (कित की प्रथमशती) के आध्यात्मिक ज्ञान का महत्त्व दर्शाया गया है कि जब वे चतुर्विघसंघ (मुनि-आर्यिकामाता-श्रावक-श्रासिका) के साथ श्री गिरनार क्षेत्र की वन्दना को गये थे तब मार्ग में किसी विषय को लेकर वाद-विवाद हो गया, उसमें आचार्य कुन्दकुन्द ने विजय प्राप्त की और समाज शान्ति की स्थापना का आदर्श उपस्थित किया 1 वे गुरुदेव मेरे हृदय में विद्यमान हों, वे विघ्नबाधाओं को दूर कर मंगल करनेवाले हैं।
मंगलमूरति परमपद-पंच धरों नित ध्यान । हरो अमंगल विश्व का, मंगलमय भगवान्।। मंगल जिनवर पद नमों, मंगल अर्हत देव । मंगलकारी सिद्धपद, सो बन्दों स्वयमेव॥ मंगल आचारजमुनि, मंगल मुरु उपझाय। सर्वसाधुमंगल करो, वन्दी मनवचकाय।। मंगलसरस्वतिमातका, मंगल जिनवर धर्म मंगलमय मंगल करो, हरो असाता कर्म'
I. जा. त. नि., पृष्ट 11-41 2. कविकर घृन्दावन संगृहीत ता.त.जि., पृ. 344 3. कवि नाथूरामकृत, जिनेन्द्र मणिमाला में संगृहीत, पृ. 13-64
जैन पूजा-काव्य के विविध रूप :: 131