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तीर्थ शब्द की व्याख्या
तरति इति तीर्थं अथवा तीर्यन्ते अनेन वा जनाः इति तीर्थ, तू (प्लवनतरणयोः) भ्वादिगणी पर सेद् धातु से 'पातृतुदि ( उणादिगण 2/7 ) इत्यादि सूत्र से थक् प्रत्यय करने पर 'तीर्थ' शब्द की निष्पत्ति होती है।
'निपानागमयोस्तीर्थमृषिजुष्टजले गुरौ
( अमरकोष, तृ. काण्ड श्लोक 86 )
अर्थात् जलाशय, आगम ( शास्त्र), ऋषि सेवित जल और गुरु में तीर्थ शब्द का प्रयोग होता है।
तीर्थ शब्द के विषय में संस्कृत कोष 'मेदिनी' का प्रमाण
"तीर्थ शास्त्राध्वरक्षेत्रोपायनारी- रजःसु च । अवतारर्षि जुष्टाम्बुपात्रोपाध्यायमन्त्रिषु॥"
अर्थात् आगम, यज्ञ, गुरु, क्षेत्र, उपाय, नारीरज, जलावतरण, ऋषिसेवित जलपात्र, उपाध्याय, मन्त्री में तीर्थ शब्द होता है।
संसाराब्धेरपारस्य तारणे तीर्थमिष्यते । चेष्टितं जिननाथानां तस्योक्तिस्तीर्थसंकथा |
( जिनसेनाचार्यकृत आदि पुराण, अ. 4 श्लोक 8 )
तात्पर्य - जो इस अपार संसार सागर से पार करे उसे तीर्थ कहते हैं। ऐसा तीर्थ जिनेन्द्र देव का चरित्र ही हो सकता है। अतः उसके कथन करने को तीर्थाख्यान कहते हैं। तीर्थ = जिनेन्द्र देव का चरित्र ।
आचार्य समन्तभद्र ने तीर्थंकर जिनेन्द्र के शासन ( उपदेश ) को सर्वोदय तीर्थ कहा है
सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकरूपं
सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
तात्पर्य- मुख्यता तथा गौणता से व्यवस्थित, सर्वधर्मो से सहित, परन्तु परस्पर निरपेक्ष धर्मों की सत्ता से रहित, मिध्यादर्शन के उदय से होनेवाले सर्वदुखों का विनाशक, अन्त से रहित, आपका ही वह प्रसिद्ध सर्वोदय तीर्थ है जो विश्व का कल्याण करनेवाला है।
( समन्तभद्राचार्यकृत युक्त्यनुशासन प्र. - नाथूराम प्रेमी, बम्बई,
पृ. 159, श्लोक 62)
जैन पूजा काव्यों में तीर्थक्षेत्र 267