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जिनानिव यजन सिद्धान् साधून धर्म च नन्दति ।
तेपि लोकोत्तमास्तद्वत् शरणं मंगलं च यत् ॥' तात्पर्य-अरहन्त (जीवन्मुक्त) के समान, सिद्धपरमात्मा, आचार्य, उपाध्याय, साधु-तपस्वियों की तथा सत्यधर्म की पूजन करनेवाले मानय, अन्तरंग-यहिरंग विभूति के साथ सुखसम्पन्न होते हैं, कारण कि वे अरहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म लोक में उत्तम, मंगल एवं शरण रूप हैं | तपस्वी वादिराज की भक्ति में स्तवन का मूल्यांकन-पौराणिक
प्रापदेवं तव नुति पर्दैः जीवकेनोपदिष्टः पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम् । का सन्देहोबदपलभते वासवश्रीप्रभुत्वं
जल्पन जायः माणभेरमलेः त्वन्नमस्कारचक्रम् ॥ भावसौन्दर्य--जीवन्धर कुमार के द्वारा सुनाये गये नमस्कार मन्त्र के पवित्र पदों से जब पापी कुत्ता भी मरण समय पशुभव को छोड़कर देवगति के सुख को प्राप्त हुआ, तब निमल माला के द्वारा आपके नमस्कार मन्त्र को जपता हुआ पुरुष यदि इन्द्र की लक्ष्मी के स्वामित्व को प्राप्त करता है तो इसमें क्या सन्देह है अर्थात् कुछ भी सन्देह नहीं।
सम्बन्धित कथा-एक दिन राजपुरी नगरी के निवासी क्षत्रियपुत्र जीवन्धर कुमार अपने मित्रों के साथ वसन्त ऋतु की शोभा देखने के लिए वन में जा रहे थे। मार्ग में इनकी दृष्टि नदी के किनारे पर तड़पते हुए एक कुत्ते पर पड़ी। दयालु जीवन्धर कुमार ने उसके कान में नव बार पवित्र णमोकार मन्त्र को सुनाया। मन्त्र के पवित्र शब्द कुत्ते के कान में टकराये। मन्त्र के श्रवण से कुत्ते की आत्मा में पवित्रता आधी, उसी समय उसका मरण हो गया। मन्त्र के प्रभाव से वह चन्द्रोदय पर्वत पर यक्ष जाति के देवों का इन्ट हुआ और सुदर्शन के नाम से वह प्रसिद्ध हुआ। सारांश यह हुआ कि परमात्मा का नाम सुनने मात्र से भी कुत्ता जैसा निकृष्ट प्राणी देव हो जाता हैं। यदि मानव शुद्ध हृदय से परमात्मा की भक्ति करे तो इससे भी अधिक फल प्राप्त कर सकता है। यह इस पौराणिक कथा से सिद्ध होता है। महाकवि धनंजय की भक्ति में पूजा का द्वितीय मूल्यांकन :
विषापहारं मणिमौषधानि, मन्त्रं समुद्दिश्य रसायनं च। भ्रमन्त्यहो न त्वमिति स्मरन्ति, पर्यायनामानि तवैव तानि ॥
1. प. आशाधर : सागर धमांमृत ; सं. पं. देवकीनन्दन सि. शास्त्री, प्र.-दि. जैन पुस्तकालय सूरत, __सन् 194D. पृ. 6s, अ.-2, श्तांक-41-42 । 2. ज्ञानीक पूजांजलि, पृ. 507 | 3 शानपाट पूजांजलि. पृ. 512।
जैन पूजा-काव्यों का महत्व :: 95।