Book Title: Jain Pooja Kavya Ek Chintan
Author(s): Dayachandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 355
________________ बाह्म मुहर्ते उत्थाय वृत्त पंचनमस्कृतिः । कोहं को मम धर्मः किं व्रतं चंति परामृशेत् ॥' सारांश-ब्राह्ममुहूर्त (प्रातः 4 बजे) में शय्या से उठकर मानव नमस्कार मन्त्र को ५ बार उच्चारण करे । पश्चात् विचार करे कि मैं कौन हूँ, मेरा क्या धर्म है, पेरा क्या नियम है इत्यादि विषयों का विचार करे। संकटनिकारक पाश्वनाथ स्तोत्र में भक्ति का महत्त्व : श्री पाश्चजिनसिंहस्य, नीलवर्णस्य संस्तवात्। लभन्ते श्रेयसं सिद्धिं, प्रकुर्वन् वांछितैः सह ॥' सारांश-नीलवर्ण से शोभित श्री पार्श्वनाथ भगवान् की भक्ति करनेवाले भक्त मानव, मनोरथों सहित सिद्धि को प्राप्त करते हुए अन्त में मुक्ति को प्राप्त करते हैं। वज्रपंजर स्तोत्र में भक्ति का मूल्यांकन : परमेष्ठिनमस्कारं सारं नवपदात्मकम् । आत्मरक्षाकरं पत्रपंजरं संस्मराम्यहम् ॥ यश्चैवं कुरुते रक्षा, परमेष्ठि पदैः सदा । तस्य तस्मात् भवं व्याधिराधिरचापि कदापि न ।' सार सौन्दर्य-नौ देवों के नमस्कार से शोभित, श्रेष्ठ पंच परमेष्ठी कं नमस्कार का द्योतक, आत्मरक्षा को करनेवाले मन्त्र पंजर को मैं बार-बार स्मरण करता हूँ। जो मानव पंचपरमेष्टी मन्नों के द्वारा सदा अपनी रक्षा को करता है उस पानव को किसी से भी भय नहीं होता और याधि (शारीरिक रोग) तथा आधि मानसिक रोग) कभी भी नहीं होते हैं। अधात् पंचपरमंप्टी देवों का मन्त्र जाप मानव को संदय करना चाहिए। यह रक्षा मन्त्र वन पंजर अथवा कवच के सदृश मानव की रक्षा करता है इसलिए इसको बज्रपंजर मन्त्र कहते हैं। श्रीचन्द्रप्रभस्तोत्र में उपासना का महत्व : श्री चन्द्रप्रभविद्येयं, स्मृता सद्यः फलप्रदा। भवाब्धि-व्याधि-विध्वंसदायिनी चैव रक्षदा ।' मावसौन्दर्य--इस चन्द्रप्रभ विद्या (मन्त्र) का जाप या स्मरण करने पर यह शीघ्र फल को देनेवाली होती है तथा संसार सागर के कष्टों को, रोगों को नाश करनेवाली एवं आत्मा की सुरक्षा करनेवाली है। 1. पं. आशाधर : सागार धर्मामृत : सं. घ. देवकीनन्दन शास्त्री, प्र.-दि. जैन पुस्तकालय गाँधी चौक, सूरत, . सं. 2466 : पृ. 407 । १ तथेंच, पृ. 257। . तथैव, पृ. 2571 ५. तथैव, पृ. 2561 जैन पूजा-काव्यों का महत्त्य :: 459

Loading...

Page Navigation
1 ... 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397