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विशद व्याख्या-जो मानव प्रातःकाल यिस्तर से उठकर झटिति भक्तिपूर्वक इस जैन रक्षास्तोत्र का पाठ करता है वह जन्म-जन्म में अथवा स्थान-स्थान पर इच्छित मनोरथों को और इच्छानुकूल सम्पत्तियों को प्राप्त करता है।
उस जैन रक्षास्तोत्र का पाठ करनयाले पुरुष को पुण्य के उदय से, अग्नि, सर्प, भयानक उपद्रव, राज उपद्रव, चोर उपथ्य यदुःख विनष्ट होते हैं और राजा तथा देव न्यायपूर्वक रक्षक होते हैं।
इसलिए शुद्धभावपूर्वक नर तथा नारो सम्पूर्ण इष्ट प्रयोजनों की सिद्धि के लिए प्रतिदिन जैन रक्षास्तोत्र का पाठ करे या जाप करें।
श्रेष्ट महापुरुषों को एक वर्ष में शास्त्रकधित पूजाविधि के अनुसार पूजा कग्ना चाहिए और समारोह के साथ उसका उद्यापन-मलोत्सब करना चाहिए। समन्तभद्र आचायंकृत रलकरण्ड श्रावकाचार में भक्तिभाव का प्रभाव :
देवेन्द्र चक्र पहिमानममयमानं, राजेन्द्रचक्र भवनान्द्रशिरांचनीयम् ।
धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोक, तथ्याशिवं च जिनभक्तिरुपति भव्यः ॥' विशद भाव-देवों द्वारा पूज्य तथा अपारमहिपा आदि ऋद्धियों को धारण करनेवाले इन्द्र पद को, नरेशां द्वारा पूज्य चक्रवतित्वपद को, शत इन्द्रों द्वारा बन्दनीय श्रेष्ठ तीर्थंकर पद को प्राप्त करकं जिनन्द्र परमात्मा में भक्ति करनेवाला भञ्च मानव अन्त में अक्षय अनुपम पुनित पद प्राप्त करता है।
अभिमतफलसिद्धरभ्युपायः सुबोधः प्रभवति त च शास्त्रात्तस्य योत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तप्रसादात्प्रबुद्धः
न हि कृतमुपकारं साधा विस्मरन्ति । भावसौन्दर्य-इप्टफल की सिद्धि का उपाय सम्बाज्ञान हं, सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति शास्त्रस्वाध्याय सं होती है, शास्त्र का उद्भव आप्त (सत्याधं सहदेव से होता है। उस आप्त के प्रभाव सं प्रबद्ध व्यक्तियों के द्वारा बह कल्याण का मूल कारण आप्त पूज्य होता है। अतएव नीतिकारों का कथन है कि कृतज्ञ सज्जन पुम्प किये हए उपकार को कभी भी विस्मृत नहीं करते हैं अर्थात कृतज्ञ होत हैं।
विघ्नाः प्रणश्यन्ति भयं न जातु न दुष्टदेवाः परिलंघयन्ति।
1. पं. आशा घर ; सागर धमांत : सं. य. देवकानन्दन शास्त्री, प्र.-दि. जैन पुस्तकालय गांधी चौक,
सूरत, वी. सं. पृ. 286। 2. धर्मभूषणयतिः न्यादीपिका : सं. डी. दरवारीलाल कोटिया, प्र.-बीर संवा मन्दिर दरियागंज,
देहली, 1968, पृ. 1361
जैन पूजा-काथ्यों का महत्त्व :: 361