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अर्थान्यथेष्टांश्च सदा लभन्तं
जिनोतमानां परिकोर्तनेन ।' तात्पर्य-जिनेन्द्रदेव के गुणों का कीर्तन या अर्चन करने से विघ्न नाश को प्राप्त होते हैं, कदापि भय नहीं होता है, दुष्टदेव आक्रमण नहीं कर सकते एवं निरन्तर यथेष्ट पदार्थों की प्राप्ति होती हैं।
कंवलज्ञानी के अथवा उनकी प्रतिमा के आगे अनुसगकरि उत्तमवस्तु धरने का दोष नाहीं। उनके विक्षिप्तता हाती नहीं। धर्मानुराग ते जीव का भला होय ।
तपस्विगुरुचैत्यानां, पूजाकोपप्रवर्तनम् ।
अनाथदीनकृपणभिक्षादि प्रतिपधनम् ।।* तात्पर्य-तपस्वी, गुरु और प्रतिमाओं की पूजा न करने के व्यवहार को एवं अनाथ, दीन और कृपण मानवों को भिक्षा आदि न दने को, अन्तराय कर्म आदि पापबन्ध का कारण कहा है।
ये जिनेन्द्रं न पश्चन्ति, पूजयन्ति स्तुवन्ति न।।
निष्फल जसिषां, देषाधिक च गृहाश्रमं सारसौन्दर्य-जो मानव भक्ति से जिनेन्द्रदेव का दर्शन, पूजन और स्तवन नहीं करते हैं उनका जीवन निष्फल है और उनके गृहस्थाश्रम को धिक्कार है।
सारभई पड़वणाइयहं जे सावज भणति ।
दंमणु तेहिं विणामियः इत्युण कायर भंति ॥" तात्पर्य -जो व्यक्ति अभिषेक, पूजन आदि के समारम्भों को सावध (दोषपूर्ण कहत हैं उन्होंने सम्यग्दर्शन (देवशास्त्र गुरु की श्रद्धा) का नाश कर दिया। वे पूजाकम को नहीं समझते, इसमें कोई भ्रान्ति नहीं।
अग्रतो जिनदेवस्य, स्तोत्रमन्त्राचंनादिकम्।
कुर्यान्न दर्शयेत् पृष्टं, सम्मुखं द्वारङ्घनम् ॥" ___ भाव--जिनेन्द्रदेव के आगे स्तोत्र, मन्त्र और पूजन आदि कर्तव्य अवश्य करें; परन्तु बाहर निकलते समय अपनी पीठ न दिखाएँ, सम्मुख हो पीछे चलकर द्वार का उल्लंघन करें।
1. आ. वीरसेन : छपवण्डागम, जीयाण | | || 21, पृष्ठ 41। 2. पं. टोडरमल : मोक्षमार्गप्रकाशक, 5124] पृ. । ९. आ. अमृतचन्द्र : तत्त्वार्थसार 4 155 । +. आ. पद्मनन्दी पद्मनान्द चविंशतिका--11115 | 5. साययधम्म दोहा-204 | 6. प्रासादमण्डन 2134 | पृ. 153
352 :: जैन पूजा काव्य : एक चिन्तन