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मरण का मूल कारण मिथ्यातत्त्व, जिनेन्द्रदेव की वन्दना या पूजा से नष्ट हो जाता
आराधयन्ति क्षणमादरेण, यदध्रिपंकेरुहमात्तभावाः।
पराङ्मुखास्ते परसक्रियायामित्यर्चनीयं जिनमर्चयामि ॥' काव्य सौन्दर्य-जो उत्तम भावों को प्राप्त कर क्षण भर भी आदरपूर्वक जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों को आराधना करते हैं वे अपात्रों का सत्कार करने से पराङ्मुख हो जाते हैं। इसलिए मैं पूजनीय श्री वर्धमान तीर्थंकर की पूजा करता हूँ ॥
विप्नीयाः प्रलयं यान्ति, शाकिनीभूतपन्नगाः।
विपं निर्विषतां याति, स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥३ सारांश-परमात्मा का स्तवन करने पर विघ्नों के समूह, शाकिनी-डाकिनी एवं सों के उपद्रव तथा कष्ट नाश को प्राप्त होते हैं और विष अपने प्रभाव से रहित हो जाता है, अर्थात् अमृता जाता है। श्री पूज्यवाद आभार्थकृत स्थापित पं भार। का मूल्यांकन
यावन्ति तन्ति लोकेस्मिन, आकृतानि कृतानि च। तानि सर्वाणि चैत्यानि, बन्दे भूयास भूतये ॥ बे व्यन्तरविमानेषु, स्थेयांसः प्रतिमागृहाः ।
ते च संख्यामतिकान्ताः, सन्तु नो दोषविच्छिदे ॥ भावार्थ:-इस लोक में जिलने अकृत्रिम (स्वाभाविक) और कृत्रिम (पुरुषों द्वारा बनाये गये) जिन चैत्यालय (मन्दिर) एवं चैत्य (मूर्तियों) विद्यमान हैं उन सबकी मैं बन्दना करता हूँ अन्तरंग एवं बहिरंग लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए।
व्यन्तरदेवों के विमानों में जितनं चैत्यालय स्थित हैं व संख्यातीत हं अर्थात् उनकी गणना करना सम्भव नहीं। उनकी वन्दना करने से हम सब भक्तों के दोषां का नाश होता है। देवसिक, रात्रिक प्रतिक्रमण में भक्ति का मूल्यांकन !
ये वीरमादा प्रणन्ति नित्यं, ध्यानस्थिताः संयमयोगयुक्ताः ।
ते धनक्षीकर हि भवन्ति लोके, संसारदुर्ग विषम तरन्ति ॥' सारांश-संयमधारी जो मानव मनसा, वाधा, कर्मणा ध्यान में स्थित होते हुए
1. वादीभसिंह सूरि : गयाचेन्तामणि : सं. प. पन्नालाल साहित्याचार्य, प्र... भारतीय ज्ञानपीठ, देहली,
1958, पृ. 4101 2. तथैव, पृ. [, [17 १. तथैव : पृ. 1491 4. तथैय : १. 168 |
जैन पूजा-कायों का महत्त्व :: 357