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धाम मुक्ति को प्रान्त करें, इसमें हार की कमाया है।
इस प्रकार राजगृह नगर के एक मेंढक ने जगत् की जनता के समक्ष पूजन के महाप्रभाव को उपस्थित किया। यह पूजा का आदर्श आज भी पौराणिक कथा के माध्यम से जगत् में प्रसिद्ध है। वे विश्ववन्ध भगवान महावीर स्वामी हम सबके लिए भी पावन दर्शन प्रदान करें।
इस ही भगवत्पूजन के प्रभाव को आचार्य समन्तभद्र ने भी स्वरचित रलकरण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ में दर्शाया है :
अर्हच्चरणसपर्या, महानुभावं महात्मनामवदत् । भेकः प्रमोदमत्तः, कुसुमेनैकेन राजगृहे ॥' देवाधिदेवचरणे, परियरणं सर्वदुःखनिहरणम् ।
कामदुहि कापदाहिनि, परिचिनुयादास्तोनित्यम् ॥ भावसौन्दर्य-सद्गृहस्थ (श्रायक) शुद्धभावों के साथ, पुण्यमनोरथों को पूर्ण करनेवाले, इन्द्रियों के विषय विकारों को भस्म करनेवाले अरहन्त भगवान के चरणों में प्रतिदिन समस्त दुःखों को दूर करनेवाली पूजा का आचरण करें। इस पद्य से भगवत्पूजा का यह फल ध्वनित होता है कि जो मानव भक्ति भाव से पूजा करते हैं वे इस जन्म के तघा अग्रिम जन्म के अनेक दुःखों को नष्ट कर अपना जीवन धर्म कीर्ति सुखमय बनाते हैं। यतिवृषभ आचार्य के मत से पूजा का मूल्यांकन :
सम्माइट्ठी देवा, पूजा कुब्बति जिणवराण सदा।
कम्मक्खवणणिमित्तं, णिभरभत्तीए भरिदमणा ॥" तात्पर्य-सम्यग्दर्शन से सहित देव मन में अतिशय भक्ति से ओत-प्रोत होकर जिनेन्द्र भगवान की पूजा सवंदा करते हैं। कारण कि जिनेन्द्रदेव के यथार्थ पूजन से ज्ञानावरण, राग, द्वेष, मोह आदि दुष्कर्मों का क्षय होता है। सपन्तभद्राचार्यस्यमते पूजायाः मूल्यांकनम् :
न पूजयार्थस्त्वपि वीतरागे, न निन्दयानाथ विवान्तवैरे।
तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चित्तं दुरितां जनेभ्यः ॥' 1. आ. समन्तभद्र : रपकरण श्रावकाचार : सप्या. पं. पन्नालाल साहिन्याचाच. प्रका.-वार सेवा __ पन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी, सन् 1972. पृ. 218 | 2. तथंव, पृ. 216। 3 आ. यतिवृषभ - निनोचपण्णसी : स. प्रो. होरालाल जैन. प्र.-जैनसंस्कृति संरक्षक संध सोलापुर,
सन् 1961, दि था. पृ. 455 | 4. आ. सपन्नभद्र : स्वयंभूरतोत्र : स. पं. पन्नालाल साहित्याचार्य, प्र.-शान्तिबीर दि. जैन संस्थान
श्री महावीरक्षेत्र. पृ. 70, सन 1991
जैन पूजा-कानों का महत्त्व :: 348