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. भावार्थ-आश्चर्य है कि जगत् के मानब विष को दूर करने के लिए, विषापहारक मणि, औषधि, मन्त्र और रसायन आदि को प्राप्त करने के लिए यत्र-तत्र घूमते फिरते हैं परन्तु वे यह विचार नहीं करते हैं कि हे भगवन्! आप ही मणि हैं, औषधि हैं, मन्त्र हैं और विष को नष्ट करनेवाली अपूर्व रसायन हैं। कारण कि वे मणि आदि सब पदार्थ आपके ही पर्यायवाचक अर्थात् दूसरे नाम हैं अतएच आपका ही स्मरण करना उपयोगी है। श्री अकलंकदेव की आराधना में भक्ति का मूल्यांकन :
श्री पार्श्वनाथमित्येवं यः समाराधयेज्जिनम् । सर्वपापविनिर्मक्तं, लभ्यते श्रीः सखप्रदम् ॥ जिनेशः पूजितो भक्त्या, संस्तुतः प्रणतोऽथवा। ध्यात्या स्तुयेत् क्षणं चापि, सिद्धिस्तेषां महोदया | श्री पार्श्वमन्त्रराज तु चिन्तामणिगुणप्रदम् ।
शान्तिप्टिकर नित्यं क्षुद्रोपद्रवनाशनम् ॥' भावसौन्दर्य- जो मानव पनसा, वाचा, कर्मणा श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्रदेव की आराधना करता है, जो पार्श्वनाथ सर्वपाप कर्मों से रहित एवं अक्षय सुख को प्रदान करनेवाले हैं उनकी भक्ति करने में श्रेष्ट लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। लो पानव वीतराग जिनेन्द्रदेव की एक क्षण भी पूजा करता है, भक्ति से स्ताते करता है, नमस्कार करता है, ध्यान करता है और कोतन करता है उसके लिए सर्वोदयी सिद्धि प्राप्त होती है।
श्री पार्श्वमन्त्रराज का जाप करने से चिन्तामणि के समान गुणों की प्राप्ति, नित्य शान्ति, पाष्टगुणों को सम्प्राप्ति और क्षुद्र उपद्रवों का विनाश होता है। यह पाश्वनाथ मन्त्र के जाप का मूल्यांकन है। अद्याष्टक स्तोत्र के रचयिता की जिगन्द्रदेव भक्ति में मूल्यांकन :
अद्याष्टकं पठेद्यस्तु गुणानन्दितमानसः ।
तस्य सर्वार्थसंसिद्धिः जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ तात्पर्य-जो मानव शुद्धभावों के साथ अद्याष्टकस्तोत्र का पाठ करता है वह गुणों को प्राप्ति से आनन्दित हो जाता है एवं हे जिनेन्द्रदेव! शुद्धभावों के साथ आपका दर्शन या पूजन करने से मानब के समस्त इष्ट कार्यों की सिद्धि होती हैं।
1. हुम्युजश्वमणास हान्न पाठवाल : सं. श्रीकन्यसागर जी महाराज, प्रका.-कुन्थुविजय ग्रन्थमाला
समिति जयपुर, सन् 1982, पृ. 252 | 2. तथैव. पृ.।
352 :: जैन पूजा काञ्च : एक चिन्तन