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अनन्तानन्तसंसारसन्ततिच्छेद कारणम् ।
जिनराजपदाम्भोज-स्मरणं शरणं मम ॥' तात्पर्य-वीतराग जिनेन्द्र देव के स्मरण, कीर्तन, स्तुति, पूजन और प्रणाम करने से अपार. अनन्तानन्त संसार की जन्म-मरणरूप परम्परा का नाश होता है अथात् मुक्ति प्राप्त होती है अतएव आप हमारे लिए शरण हैं। रचनात्मक पूजा का मूल्यांकन-पशुप्राणो का आदर्श :
यदाभावेन प्रमुदितमना दुर्दुर इह क्षणादासीत स्वर्गी गुणगणसमृद्धः सुखनिधिः । लभन्ते सद्भक्ताः शिवसुखसमाजं किमु तदा
महावीरस्वामी नयनपधगामी भवतु मे ॥ भावसौन्दर्य-पच्चीस सौ वर्ष पूर्वकालिक एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है। राजगृह नगर बिहार प्रान्तस्थी की एक बापिका में पूर्वजन्म के संस्कार से परिपूर्ण एक मेंटक ने भगवान महावीर की अर्चा करने के भाव किये। यह कमल की एक कली को मख में नेकर भगवान महावीर के पूजन के लिए वापिका से निकलकर सड़क पर चलने लगा। उसके मानस-पटल में भगवान महावीर की अच! का अटल श्रद्ध्वान था। उसी समय मगध देश के सम्राट श्रेणिक अपने टलवल के साथ, भगवान महावीर के दर्शन एवं उपदेश श्रवण के लिए, सजगृह नगर के विपुलाचल की ओर जा रहे थे, अकस्मात् जन सम्राट के महागज के पद (पर के नीचे दबकर वह पूजाभाव ले ओतप्रोत मंढक मरण को प्राप्त हो गया और प्रथम स्वर्ग में अनेक ऋद्धि आदि गुणों से सम्पन्न देयपर्याय को प्राप्त हो गया। उसने अपने मुकुट के अग्रभाग में मेंढक का चिद शोभित कर रखा था। वह शीघ्र ही भगवान महावीर के समवसरण में गया। उसके मुकट में मेंढक का लक्षण देखकर अन्य देवों ने आश्चर्य के साथ, मुख्य गणधर श्री इन्द्रभूति गौतम से प्रश्न किया कि इस देव के मुकुट में दुर्दुर का लक्षण क्यों है: गणधर ने उत्तर दिया कि इसी नगर के श्रेष्टी जिनदत्त की वापिका में रहनेवाले एक मेंढक ने भगवान महावीर की अर्चा के शुद्धभाव किये थे, वह पूजा के लिए महावीर के समवसरण में आ रहा था। सहसा २. श्रेणिक के गजराज के पैर से उसका निधन हो गया और वह इस पवित्र देवपर्याच को प्राप्त हुआ है। अतएव इस देव के मुकुट में मेंढक का चिह हैं।
इस प्रकार पशु पर्यायधारी उस मेंढक ने जब भगवान महाघोर की पूजा के भावमात्र से देवपद प्राप्त कर लिया, तब फिर जो मानव अष्टदश्य के माध्यम से शुद्धभावपूर्वक तीर्थंकर महावीर का अर्चन कर श्रेष्ठ उवपद प्राप्त करते हुए अक्षयसुख
1. मध्यान दीपक . सृष्ट-४। १. तथंच, पृ. ४।
348 :: जैन पूजा काव्य : एक चिन्तन