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के दो अर्थ द्योतित होते हैं। प्रथम अयं पुष्पमाला का, द्वितीयभक्तामरस्तोत्र का। प्रथम अर्थ-हे जिनेन्द्र देव! इस विश्व में जो पानव उत्साह के साथ अच्छे धागे से गूंधी गयी, मनोहर विचित्र वर्णवाले पुष्पों से शोभित फूलमाला को सदा .गले में पहनता है उसका सम्मान बढ़ जाता है। जीवन में सुखी और लक्ष्मी (धन-सम्पत्ति) से सम्पन्न हो जाता हैं। स्वतन्त्र हो जाता है।
द्वितीय अर्थ-हे जिनेन्द्र भगवन! इस जगत् में जो मानव, मेरे द्वारा (मानतंगाचार्य द्वारा) भक्तिपूर्वक, प्रसाद, माधुर्य, ओज आदि काव्यगणों से रची गयो, मनोहर वर्णों (अक्षरों) से शोभित, आपकी इस भक्तामरस्तुति (स्तोत्र) को सर्वदा शुद्ध कण्ठ से पढ़ता है, सम्मान से उन्नत उस पुरुष को अथवा मानतुंगाचार्य को लक्ष्मी अर्थात् स्वर्ग मोक्ष आदि विभूति मात्र रुप से पानी अमल बहिरंग एवं अन्तरंग गुणरूप लक्ष्मी प्राप्त होती है।
तृतीय अर्घ---भक्तामरस्तोत्र के प्रणेता मानतुंग आचार्य का नाम भी इस पद्य के चतुर्थ चरण में आ जाता है ‘मानतुंग' । कल्याणमन्दिर स्लोन का मूल्यांकन :
जननयनकमुदचन्द्र-प्रभास्वसः स्वर्ग सम्पदो मुक्त्वा ।
ते विगलितपलनिचया अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते ॥' सारांश-आचार्य कुमुदचन्द्र कहते हैं कि जो भव्यमानब मन-वचन-काय से सावधान होकर विनय के साथ शास्त्रकथित विधिपूर्वक परमात्मा पाश्वनाथ के पवित्र गुणों का स्तवन करते हैं, हे भगवन! वे मानव देदीप्यमान स्वर्ग की सम्पतियों का भोग करते हुए, कर्मपल से रहित, परमविशुद्ध होकर शीघ्र ही मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करते हैं। स्पष्टार्थ यह है कि जो मानव भक्तिपूर्वक आपकी स्तुति करते हैं वे मध्यम फल स्वर्ग आदि के सुख भोगते हुए अन्तिम श्रेष्टफल मुक्ति को अवश्य प्राप्त करते
पूर्वकाल में उत्तरभारत के दिगम्बर आचार्य श्री वृद्धवादि सूरि का शास्त्रार्थ एक संस्कृतज्ञ विहान के साथ, 'शरीर की शुद्धि और अशुद्धि' के विषय में हुआ था। श्री वृद्धवादि सूरि का पक्ष--शरीर जड़ (अचेतन) होने से अशुद्ध है। वह सप्त धातु और सप्त उपधातु का पिण्ड है। पं. कुमुदचन्द्र का विपक्ष-शरीर, स्नान आदि क्रिया स पवित्र होता है। तीनबार शास्त्रार्थ हुआ और तीनों ही बार पं. कुमुदचन्द्र ने विपक्ष में पराजय प्राप्त किया। शास्त्रार्थ में तत्त्वनिर्णय का परामर्श होने से पण्डित कुमुदचन्द्र नं एक ज्ञानात्पक निर्णय प्राप्त किया कि स्वभावतः शरोर अशुद्ध है और क्षात्मा शुद्ध है। इस शास्त्रार्थ से प्रभावित होकर पं. कुमुदचन्द्र ने अपनी ग़लतो पर पश्चाताप
1. ज्ञानपीट. पूजांजलि, पृ. .01।
J4G : जैन पूना काव्य : एक चिन्तन