________________
(घ) आचार्य परम्परा से प्रसिद्ध, एक हजार आठ उज्ज्वल लक्षणों से शोभित, सर्वविद्या के अधिपति आपका, हम जिनसेन अभीष्ट की सिद्धि के लिए एक सहस्र आठ शुभनामों के द्वारा स्तवन करते हैं।
इन दो पयों में क्रमशः परमात्मा के नामों का स्तवन करने से पापों का क्षय और इष्ट स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्तिरूप फल दाया गया है।
बैक्रम आठवीं शती की घटना है-संस्कृत साहित्यप्रिय तथा मन्त्रशास्वप्रिय महाराज भोज ने श्री मानतुंगाचार्य के मन्त्रवाद की परीक्षार्थ कारागार में आचार्य को विराजमान करा दिया था। कारागार के 48 द्वारों में 48 ताले निबद्ध थे एवं उन आचार्य का शरीर 48 जंजोरों से शिर से लेकर पाद तक निबद्ध था। आचार्यवर ने भक्तिभाव से भक्तामर स्तोत्र की संस्कृत में रचना कर स्वमानस-पटल पर लिख लिया और तीन दिनों तक अखण्ड पाठ करते रहे। इस स्तोत्र के प्रभाव से कारागार के 48 ताले खुलने के साथ 48 द्वार खुले गये और आचार्यश्री कारागार के बाह्यक्षेत्र में आकर एक शिलाखण्ड पर विराजमान हो गये। कई बार वे पुनः बन्दीगृह में कर दिये गये और स्तोत्र के प्रभाव से पुनः पुनः निकलकर शिलाखण्ड पर स्थित हो जाते थे। यह चमत्कार देखकर और आचार्यत्री के प्रभावपूर्ण मन्त्रशक्ति को सफलतापूर्ण ज्ञातकर महाराज भोज जैनधर्म के प्रति श्रद्धाल हो गये। भक्तामरस्तोत्र को यदि मन्त्रस्तोत्र कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। भक्तामरस्तोत्र का मूल्यांकन :
पत्तद्विसंमृगराजयकामालाह: - संग्रामवारिधिमहोदर बन्धनोत्यम् । तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियत्र
यस्तावकं स्तबमिमं मतिमानधीते || सारांश-जो बुद्धिमान् मानव आपके इस स्तोत्र का पाठ करता है उसका, मदोन्मत्त हाथी, सिंह, वनाग्नि, सर्प, युद्ध, समुद्र या जलाशय, जलोदर आदि रोग और बन्धन आदि से उत्पन्न हुआ भय, भय से क्या शीघ्र ही विनाश को प्राप्त हो जाता है। अर्थात आपका नित्यस्तवन करने से सब प्रकार का भय विनष्ट हो जाता है और जीवन की यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न होती है। इस स्तोत्र का अन्तिम पद्य :
स्तोत्रस तव जिनेन्द्र ! गुणैर्निबद्धां भक्त्या मया रुचिरवर्ण विचित्र पुष्पां। धत्ते जनो व इह कण्ठगतामजस्रं
तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मी ॥' काव्यसौन्दर्य -भक्ति रस से परिपूर्ण एवं श्लेषालंकार से अलंकृत इस काव्य
|. झानपीर पूजा जात, पृ 495 .
जन पना-काखा का महत्त्व::345