________________
आदि को क्षेत्र मंगल कहते हैं। इसके उदाहरण-कर्जयन्त (गिरनार), चम्पापुर, पावापुर आदि नगर क्षेत्र हैं। अथवा-साढ़े तीन हाथ से लेकर पाँच सौ पच्चीस धनुष तक के शरीर में स्थित और केवल ज्ञानादि से व्याप्त आकाश प्रदेशों को क्षेत्र मंगल कहते हैं। अथवा-लोक प्रमाण आत्मप्रदेशों से लोक पूरणसमुद्घातदशा में व्यापत किये गये समस्त लोक के प्रदेशों को क्षेत्र मंगल (तीर्थ) कहते हैं। अन्य प्रमाण
"क्षेत्रमंगलमूर्जयन्तादिकमर्हदादीनाम् ।
निष्कासन्नानादिगुणोगतिधारा ।। अर्थात-तीर्धकर अरहन्त आदि के निर्वाणस्थान, तपस्याभूमि आदि को क्षेत्र मंगल कहते हैं। इस प्रकार तीर्थ शब्द के आशय में ही क्षेत्र मंगल शब्द का प्रयोग दृष्टिगत होता है। तीर्थक्षेत्र शब्द का अभिप्राय यही सिद्ध होता है जो क्षेत्र मंगल शब्द का है। निष्कमण (दीक्षा) और केवलज्ञान आदि के स्थान आत्मगुणों की प्राप्ति के साधन
इसी विषय पर अन्य प्रमाण
गुणपरिणदासणं परिणिक्कगणं, केवलस्स णाणस्स। उप्पत्ती इयपहुदी, बहुमेयं खेतमंगलय।। एदस्स उदाहरणं, पावाणगरूज्जयंत चंपादी।
आउट्ठहत्थपहुदी, पणुवीसभहि पणसयधणूणि॥ सारांश-गुणप्राप्ति के कारण, आसनक्षेत्र अर्थात् जहाँ पर योगासन वीरासन आदि विविध आसनों से तदनुकूल ध्यानाध्याप्त, ज्ञान, चित्त निर्मलता आदि अनेक गुण प्राप्त किये गये हों, ऐसा क्षेत्र, दीक्षा लेने का क्षेत्र, श्रेष्ठज्ञानोत्पत्ति का क्षेत्र इत्यादि रूप से क्षेत्र मंगल (तीध) बहुत प्रकार का है। इस क्षेत्र मंगल के उदाहरण पावागिरि, ऊर्जयन्त (गिरनार पर्वत) और चम्पापुर आदि हैं। जिस काल में महात्मा केवलज्ञानादिरूप मंगलमय अवस्था को प्राप्त करता है उत्त काल को, दीक्षाग्रहण काल, ज्ञानोदय काल, मोक्षप्राप्तिकाल, ये सब पाप-मैल को गलाने का कारण होने से काल मंगल (तीध) कहा गया है।
धर्म और दर्शन के आधार पर मानव-जीवन में इलनेवाली क्रिया अथया आचरण पद्धति का नाम संस्कृति है, जिसका आविष्कार मानव अपनी बुद्धि एवं
1. गोमटसार जोवकाण्ड : नेपिचन्द्राचार्य : सं. पं. खूबचन्द्र शास्त्री, प्र.- गजधन्द्र आश्रम, अगास,
1977 ५. तिलायएण्णत्ति : यतिवृषभाचार्य : सं. होरालाल म. प्र... जैन संव. सातापुर. पृ. 9, श्लोक
21-92, सन् 1943
20 :: जैन पूजा काय : एक चिन्तन