________________
इस ही प्रतिज्ञा को छठे तथा सातवें पद्य में आचार्य परम्परागत प्रमाणित किया गया है-"श्री सम्मेदशिखर क्षेत्र का माहात्म्य श्री 108 भगवान महावीर तीर्थंकर ने गौतम गणधर को कहा, पश्चात् बुद्धिशाली एक अंगपाठी लोहाचार्य ने भव्य जीवों को कहा, पश्चात् तदनुसार देवदत्त, सत्कवि द्वारा श्री सम्मेदशिखर का महत्त्व व्यक्त किया जाता हैं।
इसी अध्याय के पद्य संख्या 32 में चक्रवतियों द्वारा तीर्थराज की यात्रा का वर्णन किया गया है
भरतेन कृता पूर्व वात्रैशा चक्रवर्तिना।
सगरेण तथा भक्त्या, सिद्धानन्दरसेप्सुना।।' भावसार-मुक्ति सुख की इच्छा रखनेवाले सगर चक्रवर्ती ने इस सिद्धक्षेत्र की भक्तिपूर्वक यात्रा की थी। उसी प्रकार भरत चक्रवर्ती ने भी इस अनादि सिद्धक्षेत्र की शुद्ध भाव से यात्रा की थी। पुण्य के प्रभाव से ही भव्य मानव श्री सम्मेदशिखर क्षेत्र की वन्दना कर सकता है, पाप कर्म के प्रभाव से नहीं कर सकता।
सम्मेदशिखर तीर्थराज दर्शन
मधुवन से छह मील की चढ़ाई करने पर सम्मेदाचल का ऊपरी भाग प्राप्त होता है, पर्वत की दोकों पर मढ़ियाँ (मन्दरियाँ) बनी हुई हैं जिनमें तीर्थकरों के चरण विराजमान हैं। टोंक को कर भी कहते हैं। इन टोंकों के नाम क्रमशः निम्न प्रकार हैं-(1) गौतम गणधरकूट, (2) कुन्थुनाथ का ज्ञानधरकूट, (3) नामनाथ का मित्रधरक्ट, (4) अरनाथ का नाटककूट, (5) मल्लिनाथ का सम्बलकूट, () श्रेयांसनाथ-संकुलकूट, (7) पुष्पदन्त-सुप्रभकूट, (8) पद्मप्रभ मोहनकूट, (9) मुनिसुव्रतनाथ-निखरकूट, (10) चन्द्रप्रभ-ललितकूट, (11) आदिनाथ-ऋषभकूट, (12) शीतलनाथ-विद्युत्कुट, (18) अनन्तनाध-स्वयंभूकूट, (14) सम्भवनाथ धवलदत्तकूट, (15) वासुपूज्य-कूट, (16] अभिनन्दननाध-आनन्दकूट। (17) धर्मनाथ-सुदत्तवरकूट, (18) सुमतिनाथअविचलकूट। (19) शान्तिनाघ-शान्तिप्रभकूट, (20) महावीर महावीरकूट, {21) सुपार्श्वनाथ-प्रभातकूट, (22) विमलनाथ-सुवीरकूट, (23) अजितनाध-सिद्धवरकूट, (24) नेमिनाथ-मित्रधरकूट, (21) पार्श्वनाथ-सुवर्णभद्रकूट।
पर्वत से इन सब कूटों की चढ़ाई कुल छह मील हो जाती है।
वन्दना करने के पश्चात् छह मील का उतार होता है। इस प्रकार श्री सम्मेदाचल की यात्रा कुल 18 मील की हो जाती है। इस विशाल पर्वत पर दो नाला शीतल जल की धारा बहाते हुए यात्रियों को प्रसन्न करते हैं। ___ सम्मेदशिखर का द्वितीय नाम पारसनाथ हिल भी कहा जाता है। यह बिहार
1. पहाकार दवरत्त त 'श्री सम्मशिखर माहात्म्य' : सं. कन्यत्तागर मुनिराज, प्र.-कुन्थुविजय
ग्रन्थ माता समिति, जयपुर, 1985 पृ. क्रमश. 1.2
276 :: जैन पूजा काव्य : एक चिन्तन