Book Title: Jain Pooja Kavya Ek Chintan
Author(s): Dayachandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 299
________________ शुक्रवार शुभ मुहुर्त में प्रतिष्ठा करायी थी। यह चौबीसी मूर्ति वर्तमान में नवा मन्दिर लश्कर में विराजमान है। इस प्रकार भट्टारकों के उपदेश से ही उनके प्रतिष्ठाचार्यत्व के द्वारा गोपाचल की समस्त मूर्तियों की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। मूर्तिलेखों का परिचय अनेक मूर्तिलेखों में प्रतिष्ठाचार्य के रूप में पण्डितवयं महाकवि रइधू का नाम प्रसिद्ध है। अपभ्रंश भाषा के मूर्धन्य कवियों में रइधू महाकवि का एक विशिष्ट स्थान हैं | इनका कुछ परिचय इनके स्वयं रचित साहित्य ते ही उपलब्ध होता है। इनका समय विक्रम सं. 1450 से 1546 तक निश्चित किया गया है। वे संघाधिप देवराय के पौत्र और हरिसिंह के पुत्र थे। महाकवि रइधू के व्यक्तित्व से इनकी माता विजयश्री ने अपने जीवन को सार्थक माना था। ये पद्मावती पुरवाल समाज के आभूषण थे। आपके निवासस्थान और गृहस्थ जीवन के विषय में कुछ भी परिचय प्राप्त नहीं होता । खलभचरित्र (पदम्पारण) की अन्तिम प्रशस्ति से वह अवश्य ज्ञात होता है कि उनके दो भाई थे (1) वाहील, (2) पाहणसिंह इसी ग्रन्थ की आद्य प्रशस्ति के अनुसार महाकवि रइधू के गुरु का नाम आचार्य ब्रह्म श्रीपाल था जो भट्टारक यशःकीर्ति के शिष्य थे। सामान्य रूप से सभी भट्टारकों को वे अपना गुरु मानते थे । ! 1 कविवर ग्वालियर में नेमिनाथ और वर्धमान जिनालय में रहकर साहित्य-सृजन करते थे। वे अपनी दिव्य प्रतिभा, प्रखर पाण्डित्य, उच्च कोटि की रचना एवं सरल स्वभाव के कारण अल्प समय में ही जन-जन के लोकप्रिय कवि बन गये थे। उन दिनों गोपालदुर्ग के शाक्तक महाराज डूंगरसिंह विद्या कला के प्रेमी एवं जैनधर्म के परम श्रद्धालु थे। उनके निकट भी इस महान् लोकप्रिय कवि की गौरवगाथा श्रवणगोचर हुई। उन्होंने कविवर का आदर के साथ राजदरवार में आमन्त्रित किया। महाराज. कविवर के व्यक्तित्व एवं प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए और कविवर के प्रति, दुर्ग में रहकर हो अपनी साहित्य साधना का केन्द्र नियत करने हेतु अनुरोध किया। कविवर ने उसको स्वीकार कर लिया और दुर्ग में रहकर साहित्य-सृजन तथा प्रतिष्ठा का कार्य करने लगे। यह कार्यक्रम महाराज डूंगरसिंह के पश्चात् उनके पुत्र महाराज कीर्ति सिंह के शासनकाल में भी चलता रहा। कविवर ने 30 से अधिक ग्रन्थों का प्रणयन किया था जिनमें से 24 ग्रन्थ उपलब्ध हो गये हैं। उनकी भाषा प्रायः सन्धिकालीन अपभ्रंश हैं। किन्तु कुछ ग्रन्थ प्राकृत, हिन्दी एवं संस्कृत में भी उपलब्ध होते हैं । महाकवि रधू के व्यक्तित्व की एक द्वितीय कला प्रतिष्ठाचार्यत्व की विकसित थी। उन्होंने अपने जीवन में ग्वालियर दुर्ग में तथा अन्य नगरों में भी अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा को सम्पन्न कराया था। यह वृत्त कविवर रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियों जैन पूजा काव्यों में तीर्थक्षेत्र 803

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