Book Title: Jain Pooja Kavya Ek Chintan
Author(s): Dayachandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 338
________________ अंजलिकरण, नमस्कृति. आसनदान, तथा अतिथिसत्कार करना प्रथमविनयकर्म है। (2) अपनी शक्ति एवं विभव के अनुकूल भगवत्पूजा करना द्वितीय लोकानुवृत्तिविनयकर्म है। वह पूजा गन्ध, पुष्प, धूप आदि के द्वारा विनय सहित की जाती हैं। द्रव्य शुद्ध एवं प्रासुक होना चाहिए 1 इससे सिद्ध होता है कि गृहस्थ के लिए कृतिकर्म के समय आठ द्रव्यों की आवश्यकता होती है। योगि श्रेष्ठ के लिए द्रव्यों की आवश्यकता नहीं होती, उनके निवृत्तिपरक भाव, द्रव्य के बिना ही स्थिर रहते हैं। उनके महाव्रत की साधना होती है। इस विनय गुणपूर्ण कृतिकर्म से उन्नत गुणों (रत्नत्रय आदि) की सम्प्राप्ति होती हैं। पूजाकर्म का यह महत्त्वपूर्ण मूल्यांकन है। विनयकर्म का द्वितीय मुख्य मंद मोक्ष बिनय है। गुदा सम्बन्धी विनय पंच प्रकार की होती है-(1) दर्शन विनय, (2) ज्ञान विनय, (5) चारित्रविनय, (4) तप विनय, {5) औपचारिक निय। जीव आदि सात तत्व एवं छह द्रव्यों का निदोष श्रद्धान करना दर्शन विनय हैं। यथार्य तत्त्वज्ञान की उपासना करना ज्ञान विनय है। पंचमहाव्रत, पंचसमिति, तीन गुप्तियों की साधना करना चारित्र विनय है। द्वादश तपों का निर्दोष आचरण करना तप विनय है। पूर्वोक्त विनयों की साधना में तथा पंचपरमेष्ठी परमदेवों में करबद्ध प्रणाम आदि का आचरण करना औपचारिक विनय है। इन पंच प्रकार विनयों के द्वारा मुक्ति की प्राप्ति अथवा परमात्मपद की प्राप्ति होती है इसलिए कृतिकर्म पूजाकर्म) का महत्त्वपूर्ण मूल्यांकन सिद्ध होता है। कृतिकर्म या पूजाकर्ष की साधना के अन्य प्रकार : देवपूजा के छह अंग होते हैं-(1) प्रस्तावना, (2) पुराकर्म, (3) स्थापना, (4) सन्निधापन, (5) पूजा, (6) पूजाफल । (1) जिनेन्द्र देव गुणों का स्मरण करते हुए विधिपूर्वक अभिषेक करना प्रस्तावना कहा जाता है। (2) सिंहासन के चारों कोणों पर स्वास्तिक शोभित, जलपूर्ण चार कलशों की स्थापना करना पुराकर्म कहा जाता है। (3) सिंहासन पर विधिपूर्वक अहंन्तदेव के स्थापित करने की स्थापना कर्म कहते हैं। (4) ये जिनेन्द्र देव हैं, वह सिंहासन मेरुपर्वत है, जलपूर्ण ये कलश क्षीरोदधि के जल से पूर्ण कलश हैं, अभिषेक के लिए उद्यत हुआ मैं इन्द्र हूँ, ये मानव देवता हैं। ऐसा विचार करना सन्निधापन है। (5) अभिषेक के साथ विधिपूर्वक पूजन करना पूजाकर्म है। (6) स्वर्ग की प्राप्ति तथा विश्वकल्याण को कामना करना, आत्मकल्याण की कामना करना पूजा का फल है। इसी विषय की सोमदेवाचार्य ने यशस्तिलक चम्पू ग्रन्थ में प्रतिपादित किया है : 312 :: जैन पूजा काव्य : एक चिन्तन

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