Book Title: Jain Pooja Kavya Ek Chintan
Author(s): Dayachandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 301
________________ चित्रण हुआ है। उदाहरणार्थ पूजा-काव्य के कुछ महत्त्वपूर्ण पद्यों का प्रदर्शन किया जाता है हे पारस मेरे हृदय वसा, गोपाचल मुक्ती द्वारा है है करुणासागर शिवदाग, सन्निदारो भनाग है। श्री तीर्थराज गोपाचल की, स्थापन निज में करता हूँ, निज आत्मलक्ष्मी-प्राप्ति इंतु, गोपाचन पूजन करता हूँ।। दोष- आशा दृष्टि त्याग के, जो पारस उर भ्याए । नासा दृष्टि पायकर, स्वयं पारस बन जाए। तुम पारस प्रभु केवलज्ञानी, मैं चरण शरण में आया हूँ मैं भगत नहीं भगवान बनें, तुम जैसा बनने आया हूँ। उज्वलता निज की पाने का, सपाकेत जल लेकर आया हूँ गोपाचल पूजन करने का, प्रभु पाश्वं शरण में आया हूं।। मन्न-ओं ही श्री गोपाचल पार्श्वनाथ तीर्थंकराय मिध्यामलविनाशनाय जन्मजरामृत्यु विनाशाय जलं नि. स्वाहा। सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पूजा-काव्य सोनागिरि का इतिहास एवं परिचय श्री मोक्षसिद्धिसमवाप्तिनिदानमकम् । शैलान्ययाम्बुजवनप्रतिबांध मानुम् । ध्यानात्समस्त कतुषाम्बुधिमुम्भजातम् । बन्द सुवर्णमयमुच्चतुवर्णर्शनम्॥ भाव-सौन्दर्य --जो श्रमणगिरि (सोनागिरि) माक्षसिद्धि की प्राप्त में पून कारण है, जो पर्वत कुलरूपी कमन्न वन का प्रफुल्लित करने के लिए सूर्य के समान है। जिस सोनागिरि के ध्यान से समस्त पापों का समुद्र घड़े के समान बोटा हो जाता है। उस सुवणं कं तमान सुन्दर और उन्नत सुवर्णगिरि को में बन्दना करता है। इत्त तीर्थ को श्रमणागरि, श्रमणाचल, स्वर्णगिरि संस्कृत भाषा में कहते हैं, इसको हिन्दी में सोनागिरि कहते हैं, वर्तमान में यह नामसोनागिरि ही प्रसिद्ध है। यह सिद्धक्षेत्र (तीर्थ) इस कारण कहा जाता है कि यहाँ से नंगकुमार, अनंगकुमार अदि सार्ध पाँच कोटि मुनिराज आत्मसाधनाकर मुक्ति को प्राप्त हुए हैं। प्राकृत निर्वाणकाण्ड तथा हिन्दी निर्वाणकाण्ड स्तोत्र में इस विषय का स्पष्ट प्रमाप्य दर्शाया गया है जैन गूजा-कायों में नीर्थक्षेत्र :: 305

Loading...

Page Navigation
1 ... 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397