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ऐरासुत्तस्य भवतो भवतो बिरक्तिः जाता यदा प्रकटितोऽत्र तदा सप्तोऽग्रे तीर्थंकर प्रकृतिपुण्यवशान्निलम्पे लौकान्तिकस्तव विभोरकरोद् स्तुति सः॥
गर्भस्थेऽपि त्वयि सति विभो व्याधयो वाघयो वा। नष्टा जाताः श्रुतमिति मया प्राणिनां त्वयसादात् । त्वां साक्षाद् ये नयनचपके मुक्तकण्ठं पिबन्ति
तेषामापद्विषधरविषं सत्वरं नश्वरं स्यात्।। चित्रं चित्रं सुचरितमिदं यत्प्रभो ध्यानतस्ते त्वादृग्जीवस्त्रिभुवनपतिः स्याद् दरिद्रोऽधमो वा। ज्ञात्वैवं त्वाऽहमपि तवाम्यर्णमत्रागतोऽस्मि भाष्टुं स्वीयं प्रबलमशुभं कर्मरोग दुरन्तम्।।
वह्नस्तापो जिनवर यथा कज्जलं स्वर्णवर्णम्, अन्तर्भूत्वा मलविरहितं सर्वशुद्धं करोति । स्वामिन पनि मम मनमर्गः: स्याः
तत् किं चित्रं जिन मम मनोगेह शुद्धिर्न किं स्यात् । शान्तिनाधस्य संस्तात्रं, भक्त्वा मूलेन्दुना कृतम्।
पठतः शुण्क्तः पुंसः, शान्तिः स्थयात पदे पदे।' खजुराहो क्षेत्र पूजा-काव्य
सन् 1947 में काये ‘सुधेश जैन नागोंद द्वारा खजुग़हो क्षेत्र में विराजमान श्री शान्तिनाथ भगवान के पूजन काव्य का निर्माण किया गया। इस काव्य में कुल 28 पद्यों का सात प्रकार के लन्दों में सृजन किया गया है। काव्य में प्रसादगुण, अलंकार
और सरलरीति के माध्यम से शान्तरस को पुष्ट किया गया है। इस काव्य के कुछ प्रमुख पद्य इस प्रकार हैंजल अर्पण करने का छन्द-जोगीरासा
चिर से मेरे संग लगी है, जन्ममरण की बाधा इनसे बचने हेतु तुम्हें है आज यहाँ आराधा।
1. शान्तिनाध स्तोत्र रच. पं. मूतचन्द्रशास्त्री, प्र. --टिं. जैन वीर पुस्तकालय महावीर जी (राज.) सन्
1980
312:: जैन पूजा काव्य : एक चिन्तन