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के समान शोभित हो रहा है। विश्राम के लिए धर्मशालाएँ निर्मित हैं। मांगी पर्वत की चौड़ाई तीन मील है, सावधानी से इस पर्वत पर सभी आरोहण करना चाहिए। इस पर्वत पर चार गुफ़ा मन्दिर हैं जिनमें मूलनायक भद्रबाहुस्वामी की प्रतिमा है, अन्य प्रतिमाओं में कुछ भट्टारकों की भी प्रतिमाएँ हैं। सभी प्रतिमाएँ 11वीं तथा 12वीं शताब्दी की हैं। मद्रयाहु स्वामी की प्रतिमा होने से यह सिद्ध होता है कि उन्होंने इस पर्वत पर आध्यात्मिक तप किया था।
इस पर्वत से दो मील दूर तुंगी पर्वत है। संकीर्ण मार्ग में पर्यत की पढ़ाई कठिन साध्य है, सावधानी से चढ़ना चाहिए। इस मार्ग में श्रीकृष्ण जी के दाह-संस्कार का कुण्ड भी मिलता है। यदि वस्तुतः यहीं पर बलदेव जी ने अपने भाई नारायण का दाह-संस्कार किया था, तो इस पर्वत का प्राचीन नाम 'शृंगो' पवंत हाना चाहिए। कारण कि हरिवंश पुराण में उस पर्वत का यही नाम उल्लिखित है। तुंगी पर्वत पर तीन गुफ़ा मन्दिर के दर्शन होते हैं जिनमें प्राचीन प्रतिमाएँ हैं। वहाँ पर मूलनायक श्री चन्द्रप्रभ स्वामी की प्रतिमा करीब चार फीट ऊँची पद्मासन में विराजमान है। मार्ग में उतरते हुए एक 'अद्भुत जी' नामक स्थान मिलता है जहाँ पर कई मनोज्ञ एवं प्राचीन प्रतिमाएँ दर्शनीय हैं। यहीं पर एक कुण्ड है।
क्षेत्रीय पूजा-काव्य
इस तीर्घ क्षेत्र के पूजा-काव्य की रचना कवि गोपालदास द्वारा की गयी है। इसमें चौबीस काव्य (पद्य) पाँच प्रकार के छन्दों में रचे गये हैं। इन पद्यों में अलंकार पूर्ण गुणों का वर्णन होने से भक्ति रस की धारा प्रवाहित होती है। उदाहरणार्थ कुछ पधों का प्रदर्शन
गंगाजल प्रासुक भर झारो, तुम चरणा दिग धारो, परिग्रह त्रिसना लगी आदि की, ताको बै निरवारो। राम हन् सुग्रीव आदि जै, तुंगीगिर थित थाई, कोटि निन्यानवे मुक्त गये मुनि, पूजों मन वच काई।। तिन सिद्धनि को मैं नमों सिद्धि के काजा शिवथल में दे मोहि वास त्रिजग के राजा। नावत नित माथ गुपाल' तुम्हें बह भारी, भव भव में सेवा चरण, मिले मोहि धारी॥ तुप गुणमाला परमविशाला, जे पहरें नित भव्य गले नाशै अघ जाला, है सुखहाला, नित प्रति मंगल होत भले॥'
3. बृहत महावीर कीन, पृ. 74:3-746
212 :: ले। पूजा काव्य : पाक चिन्तन