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हैं परमपावन पुण्यदायक, अतुल महिमा जानिए। अरु है अनूप सरूप गिरिवर, तासु पूजन ठानिए।।
सोरठा
कर्मनाश ऋषिराज, पंचमगति के सुख लहे। तारण तरण जिहाज, मो दुख दूर करो सकल॥
दोहा
पारस प्रभु के नाम में, विघन दूर टर जाय। ऋद्धि सिद्धि निधि तासको, मिलि है निशदिन आया
श्री सम्मेदशिखर समुच्चय पूजा-काव्य
इस पूजा-काव्य का सृजन भी कविवर जवाहरलाल द्वारा किया गया है। इसमें 64 पद्य, नौ प्रकार के छन्दों में निबद्ध हैं। इनमें विविध अलंकारों की वर्षा से भक्ति रस का जलाशय परिपूर्ण हो रहा है। उदाहरणार्थ कुछ पद्यों का उद्धरण प्रस्तुत किया जाता है।
सम्मेदशिखर तीर्थ की पूजा का महत्त्व
नित करें जे नरनारि पूजा, भावभक्ति सलायके तिनको सुजश कहता 'जवाहर', हरष मन में धारिकें। ते हों सुरेश नरेश खगपति, समझ पूजाफल यही
सम्मेदगिरि की करहु पूजा, पाच हो शिवपुर मही॥ सम्मेदाचल की प्रकृति का वर्णन
मारुत मन्द सुगन्ध चलेय, गन्धोदक जहाँ नित वर्षेय । जिय को जाति विरोध न होय, गिरवरवन्दौं कर धरि दोय।। जो भवि वन्दे एकहि शर, नरक निगोद पशूगति द्वार । सुर शिवपद को पाचै सोय, गिरिवर वन्दौ कर धरि दोय।।'
इस पूजा-काव्य में कुल चौबीस पद्म छह प्रकार के छन्दों में निबद्ध हैं। प्रकृतिवर्णन एवं अलंकारों को छटा से भक्ति रस का माधुयं व्यक्त है।
1. बृहतमहावीर कीर्तन, पृ. 197-709 ५. तथैव, पृ. 710-716
276 :: जैन पूजा काव्य : एक चिन्तन