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तीर्थंकर से दीक्षा लेकर इसी पर्वत पर तपश्चरण किया और परमात्मपद को प्राप्त किया। महामुनि गजकुमार ने इसी क्षेत्र पर परमध्यान करते हुए मुक्तिपद को प्राप्त किया। भगवान नेमिनाथ के गणधर वरदत्त महर्षि ने अगणित साधुओं के साथ तपश्चरण कर परम सिद्ध पद को प्राप्त किया। राजकुमारी राजुलदेवी ने सती आर्यिका की दीक्षा लेकर इस पर्वत के सघन सहस्राम्रवन में ( सहसावन) में तपश्चरण कर देवगति को प्राप्त किया। इसी पावन क्षेत्र पर महामुनि अनिरुद्ध कुमार (अनुरुद्ध कुमार) आदि करोड़ों जैन मुनियों ने आत्म-साधना कर परम सिद्ध पद को प्राप्त किया है
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इस पर्वत की प्रथम टोंक (शिखर) से आगे अम्बा देवी (अम्बिका देवी) का एक विशाल मन्दिर हैं। इसके पीछे चबूतरे पर महामुनि अनिरुद्ध कुमार के चरण चिह्न हैं । इस पर्वत पर सैकड़ों जैन मुनियों ने रत्नत्रयरूप आत्म-साधना कर सिद्ध पद को प्राप्त किया है अतः इस तीर्थ को सिद्ध क्षेत्र भी कहते हैं। गिरनार पर्वत का मूल्यांकन -
“ मागा गर्वममर्त्यपवंत परां प्रीतिं भजन्तस्त्यया भ्रम्यन्तं रविचन्द्रमा-प्रभृतयः के के न मुग्धाशयाः । एको रैवत भूधरो विजयतां यद्दर्शनात् प्राणिनो यान्ति भ्रान्ति विवर्जितः किल नन्दं खीष
भाव सौन्दर्य - हे पर्वत श्रेष्ठ! गवं मत करो। सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र तुम्हारे प्रेम में इस प्रकार मुग्ध हुए हैं कि वे अपना मागं चलना भी भूल गये हैं अर्थात् वे प्रतिदिन तुम्हारी ही परिक्रमा देते रहते हैं। इतना ही नहीं, अपितु ऐसा कौन है जो तुम पर मुग्ध न हो जय हो इस प्रधान रेवत पर्वत की, जिसके दर्शन करने से मानव भ्रान्ति को खोकर आनन्द का अनुभव करते हैं और परमसुख को प्राप्त होते हैं।
इस पर्वत पर तीर्थो, मन्दिरों, राजमहलों, कीड़ाकुंजों, झरनों और हरे-भरे फले-फूले वनों ने अपनी अनुपम शोभा स्थापित कर ली है। उसकी प्राचीनता भी श्री ऋषभनाथ देव के समय से ज्ञात होती है। भरत चक्रवती अपनी दिग्विजय के प्रसंग में यहाँ आये थे ।
एक ताम्रपान से प्रकट है कि ईसा पूर्व 1140 में गिरिनार पर ( रैवतक पर ) भगवान नेमिनाथ के मन्दिर बन गये। गिरिनार के निकट ही गिरिनगर बसा हुआ था जिसको वर्तमान में जूनागढ़ कहते हैं ।
इसी पर्वत पर चन्द्रगुफ़ा में आचार्यप्रवर श्रीधर सेन तपस्या करते थे। उन्होंने पुष्पदन्त और भूतबलि नामक आचार्यों को विशिष्ट श्रुतज्ञान का उपदेश देने के पश्चात् आदेश दिया था कि वे अनुभूत श्रुत को लिपिबद्ध करें।
जैन पूजा काव्यां में तीर्थक्षेत्र : 281