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प्रकाशित कर श्री सम्मशिगवा क्षेत्र पर तपस्या कमरे र मग गप रे, पण मग निर्वाण को प्राप्त किया था।
शेषा जिनेन्द्रास्तपसः प्रभावात्, विधूयकर्माणि पुरातनानि।
धीराः परां निवृतिमभ्युपेताः सम्मेदशैलोपवनान्तरेषु॥' भाव सौन्दर्य-धीर वीर अजितनाथ आदि शेष बीस तीघंकर प्रकृष्ट तप के प्रभाव से पूर्ण संचित आठ कर्मों को नष्ट कर सम्मेदशिखर सघन उपवन से मुक्ति को प्राप्त हुए।
कैलाशे वृषभस्व निवृतिमही, वारस्य पावापुर, चम्पायां वसुपूज्यसज्जिनपतेः उम्मेदशैले हता।
शेषाणामपि चोर्जयन्तशिखर-नेमीश्वरस्याहती
निर्वाणायनयः प्रसिद्धविभवाः कुर्वन्त ने मंगलम्॥ सार सौन्दर्य-कैलाश पर ऋषभनाथ की, पायापुर में महावीर की, चम्पानगरी में वासुपूज्य की और गिरनार पर्वत पर नेमिनाथ तीर्थकर की निवाणभूमि प्रसिद्ध है। शेष वीस तीर्थंकरों की निर्वाणभृमियों सम्मेदशिखर पर जगत्प्रसिद्ध है, इस प्रकार मुक्ति को प्राप्त हुए, वे चौबीस तीर्थंकर विश्व का कल्भाग करें।
इसी प्रसंग में जैन दर्शन के अन्तर्गत उत्तर पुराण में एक प्रभावक कथा मगर चक्रवती के विषय में प्रसिद्ध है
सगर चक्रवर्ती का जीव पूर्वजना में स्वर्ग का एक धमात्मा दंव था, उसका मित्र मणिकंतु नाम का एक देव भी स्वर्ग में रहता था। दोनों का पारस्परिक मैत्री पूर्ण व्यवहार धा। एक दिन दोनों देवों में यह निश्चय हुआ कि हम दोनों में जो भी प्रथप मनुष्य भव प्राप्त करेगा, उसको मध्यलोक में, स्वर्ग का मित्र देव आत्म-कल्याण के लिए सम्बोधित करंगा। भाग्यवश सगर चकी का पूर्व जीव स्वर्ग से चय कर सगर चक्री हो गया। वह समयानुसार भरत क्षेत्र में शासन करने लगा।
जब मणिकेतु देव ने अपने पूर्वभव की मित्रता को ध्यान में रखकर सगर चक्री को आत्म-कल्याण में प्रेरित करने के लिए, उसके साठ हजार पुत्रों के मायावश अकाल मरण का शोक वृत्तान्त सुनाया तो चक्रवर्ती को सुनते ही संसार से वैराग्य हो गया और भगीरथ को राज्य देकर चक्री ने दि. मुनिदीक्षा को अंगीकार कर लिया। उधर कैलाश पर्वत के निकट मणिकेतु ने उन साठ हजार पुत्रों को सचेत करते हुए, उनके पिता द्वारा मुनि दीक्षा को लेने का समाचार जा सुनाया। उस श्रेष्ठ वृत्तान्त
1. जटासिंह नादकत वगंगचरिन : सं. पं. खुशालचन्द्र गारावाला, प्र.-जनसंघ. बारासो, मथुरा
1958 ५. विमतभक्ति संग्रह : मंगलाष्टकपद्य 6. पृ. 170
274 :: जैन पूजा काय : एक चिन्तन .