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अष्टम अध्याय
-काव्यों में तीर्थक्षेत्र
भारतीय संगीत पुरातत्व में इतिहास में करें मासपूर्ण स्थान है। ये महापुरुषों, तीर्थंकरों, महर्षियों और अवतारों के ज्वलन्त स्मारक हैं जो आज भी महापुरुषों आदि के प्रबल सन्देशों को मौन आकृति से कह रहे हैं। इन पावन तीर्थों ने भारतीय संस्कृति-पुरातत्त्व और इतिहास एवं दर्शन, सपाज और धर्म के विकास में स्वयं को समर्पित कर दिया है।
संस्कृतव्याकरण के विग्रह के अनुसार तीर्थ का अर्थ होता है कि 'तीर्यते संसार-महार्णवः येन निमित्तेन तत् तीर्थमिति' अर्थात् जिस पवित्र साधन से संसार रूपीमहादुःख समुद्र को पार किया जाए, वह तीर्थ है।
तीर्थ शब्द व्यापक अर्थों से शोभित है इसलिए उसके अनेक अर्थ हैं(1) शास्त्र, (2) अबतार, (9) जलाशय का घाट, (4) महापात्र (5) पुण्यक्षेत्र, (6) उपाध्याय, (7) दर्शन, यज्ञ, (8) तपोभूमि। इससे सिद्ध होता है कि तीर्थ शब्द परमश्रेष्ठ है और उसकी भक्ति, जगत् के मानवों का कल्याण करनेवाली है।
तीर्थे प्रवचन पाने, लब्धाम्नाये विदाम्बरे।
पुण्यारण्ये जलोत्तरे, महासत्त्वे महामुनी।।' जैन तीर्थों पर तीर्थंकरों ने और आचार्यों ने तपस्या कर आत्म साधना को किया और धर्म, साहित्य, दर्शन, कला-गणित-विज्ञान-आयुर्वेद-नीति आदि विषयों पर शास्त्रों का सृजन करते हुए लोक-कल्याण एवं आध्यात्मिक ज्योति का विकास किया। इसी कारण वे क्षेत्र तीर्थ स्थान होने के योग्य एवं विश्ववन्दनीय माने जाते हैं।
1. महाकवि धनन्जय : धनञ्जयनाममाला : सं. मोहनलाल शास्त्री, जवाहरगंज जबलपुर. पृ. 85 :
1980 2. "जैन तीर्थों के विषय में लिखे गये अनेक ग्रन्धों का इतिहास, भूगोल, कला तथा पुरातत्त्व की
दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। अनक ताओं ने स्वयं साहित्य के विकास, प्रचार और पुनरुद्धार में महत्त्वपूर्ण चांगदान किया है। श्रवणबेलगोला के शिलालेख जीवित नाहित्य के अनुपप उदाहरण हैं।" 'मारतीय संस्कृति में जैन तीर्थों का योगदान' ले. डॉ. भागधन्द जैन 'भागेन्दु'. प्र.-अखिल विश्व जैन मिशन, अतीगंज, एटा, उ.प्र.. प्र. सं., पृ. १, सन् 1951
PF :: जैन पूजा काव्य : एक चिन्तन