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अष्ट द्रव्य शुभ लाय ससन्मुख आयकै, करन लागे भक्ति महागुण गायकै॥ देव ही जहै पूजकर, महपुण्यफल उपजावहीं, बहकरें भक्ति बिनययुत हो, कण्ठ जिनगुण गावहीं। तहैं मनुष का नहिं गमन जानो, पुण्य बिन दर्शन नहीं
इमि जान उर में भायभावन, पूजिहीं इस ही मही॥ पूजा करनेवाले भक्ति पुरुष के लक्षण
मन बच काय शुद्ध भावसमताभई, शील जत नार नर होय पूला ठई। अन्त पूजा ल- भाव ऐसो धरै, कर्पकारज तनौं लोभसब परिहरे॥ चित्त उदार बहुदामखचेसही, मानछललोप जिस चाहि ताकी जही।
भाव शुद्ध राख तजि क्रोध सुखसी रहे, भक्तियुत दीन हो सेव जिन की करे। समुच्चय चैत्यालय पूजा-जल अर्पण करने का काव्य
नोरनिर्मल क्षीरदधिको कनकझारी में भरौ
तिविनयकर मन बैन काया आप करले अनुसरो । सब लोक जामन मरण छेदक देव के पद का जजौं,
तिस लाश तें जगमरण को दुख वंदविन सहजें तजौं। अर्थ अर्पण करने का काव्य
लोक में उत्पत्तिमरणो किरण अरहर ज्यों कहीं धिर नाहिं जेतं करमवश है जगतविधि चंचल सही ।
या छाहि जग की रीति सब ही लोक उत्पत्नि को हरी,
तिमदय के पद सेवन को अरब हम जिन टिग धरी।' उपमालंकार और गीता छन्द में रचित इस काव्य में कवि ने भक्त के मानसतल पर शान्तरस की धारा प्रवाहित करने का प्रयास किया है। अन्तिम सिद्धलोक पूजा की स्थापना
चेतनज्ञानस्वरूपसदा सुख, नाम लिये अघ जाये, शुद्धस्वभावमूर्ति विन अंजन राग द्वेष नहिं पाये। कर्पकलंक विना आतम इक लोकशिखर पै राजै ऐसे सिद्ध अनन्त सिद्ध थल थापि जजौं शिव काजै॥
1. तीनलोकपूजा, पृ. 5-7 2. तथैव, 346
हिन्दी जैन पूजा-कायों में छन्द, रस. अलंकार :: 217