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ऐसे ऋषीश्वर ऋद्धि विक्रियधरी तिनके पदकमल,
पूजों सदा मन वचन तन करि, हरो मेरे कर्ममल।।' स्थापना
धरतशिरधरतशिर धरतशिर चरण तर करत हम करत हम करत गुरु भक्तिवर । थपत इत थपत इत धपत बल ऋषिचरण
बलऋद्धि बलऋद्धि बलऋद्धि अर्चन करना।' आशीर्वाद कथन
सात इति भय मिटै देश सुखमय बसे प्रज्ञामहि धन धान्य महद्धिकता लसैं । राजा धार्मिक होय न्यायमग में चत्तै या पूजन फल येह धर्म जिनवर झिलै॥
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जैनभक्ति के विशाल स्तम्भ : प्रबन्ध काव्य
"हिन्दी के जैन कवियों ने अनेक महाकाव्यों का निर्माण किया है। उनमें जिनेन्द्रदेव अथवा उनके भक्तों की भक्ति ही मुख्य है। जैन अपभ्रंश के महाकाव्यों से प्रभावित होते हुए भी हिन्दी के जैनभक्ति काव्यों में कुछ अपनी विशेषताएँ भी हैं। हिन्दी के जैन महाकाव्यों में पौराणिक और रोमांचक शैली का समन्वय हुआ है। यथा-सधारका 'प्रद्युम्नचरित्र' और ईश्वर सूरि का 'ललितांगचरित' । इनमें कथा के साथ भक्ति का स्वर ही प्रबल है।
जैन महाकाव्यों की दूसरी विशेषता यह है कि बीच-बीच में मुक्तक स्तुतियों की रचना। बदि महाकाव्य तीर्थंकर के जीवनचरित् से सम्बद्ध होता है, तो पंच कल्याणकी के अवसर पर स्तुतियों का निर्माण होता ही है।
तृतीय विशेषता यह है कि इन महाकाव्यों का अन्तिम अध्याय. जिनमें नायक (तीर्थंकर के कंवलज्ञान प्राप्त करने का भावपूर्ण विवेचन होता है। यहाँ नायक को, आत्मा के परमात्मरूप होने की बात कही जाती है, इसी को जीवात्मा का परमात्मा के साथ तादात्म्य होना कहते हैं। उस समय कवि के मुख संजो कर निकलता है वह आत्मा के परमात्मरूप को उपासना ही होती है। इस भारते जैन महाकाव्य
1. चौंसठ ऋद्धिपूजा विधान, पृ. 42 ५. तथैव, पृ. । 1. तथैव. पृ. ।
222 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन